जीवन था उसका अभिशाप
वह थी एक अवला शोषण का शिकार
रोज की हाथापाई कर गई सीमा पार
नौवत बद से बत्तर हुई |
एक दिन दो हाथ
गले तक जा पहुंचे जाने कहाँ छुपे थे
साँसे थामने लगीं
ठहर गए आंसू आँखों में
पहले कहाँ कमी रही उसमें
बगावत न कर सकी थी
अब अन्याय के विरोध की
क्षमता जाग्रत हुई एकाएक
उसका भी अस्तित्व है सोच कर
बगावत करने को हुई बाध्य
अब सह न पाएगी हिंसा और अत्याचार
है आज की नारी नहीं अब बेचारी
मनोबल जागा है उसका
आत्मविश्वास भी कम नहीं
करते हैं वे भूल जो उसे अभिशाप मानते हैं
|है वह माता पिता का अभिमान
इस युग की है देन मन से सक्षम
किसी बेटे से कम नहीं है
अब उसे भय नहीं किसी से
ना ही किसी पर है बोझ
ना जीवन अभिशाप उसका
है भविष्य उज्वल उन्नत
आज की स्वतंत्र नारी का
जाग्रत तन मन हुआ है
स्वप्न पूर्ण हुआ है
वह किसी से कम नहीं है
ना ही जीवन अभिशाप उसका |
आशा
बहुत ही सुंदर नारी गाथा ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ! आज की नारी सबल है सक्षम है सशक्त है ! ना वह अबला है ना ही अभिशप्त !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए|
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