है दर्पण के समक्ष यह कौन
तुम या तुम्हारी प्रतिछाया
हो मौन क्यों ?उदास क्यूँ ?
खिल खिलाती नहीं
बतियाती नहीं
क्या विपदा आन पडी है
क्यूँ उत्तर नहीं देती ?
मैं कोई गैर तो नहीं
हूँ हमराज हमदम तुम्हारा
मुझसे यह दूरी किस लिए ?
इतना भेदभाव किसके लिए
कभी तो मुखर हुआ करो
कुछ अपनी कहो
कुछ मेरी भी सूना करो
केवल यही अपेक्षा हैं तुमसे
मन में भेद न पाला करो
मैं कोई गैर नहीं हूँ
मुझसे सुखदुख बांटा करो
थोड़ी सी है जिन्दगी
यूँही इसे व्यर्थ जाया न करो
कोई समझे या न समझे
पर मैं तुम्हें समझ गया हूँ
मुझसे यह भेदभाव क्या सही है
तुम्ही अब फैसला करो |
आशा
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (23-12-2019) को "थोड़ी सी है जिन्दगी" (चर्चा अंक 3558 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं…
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रवीन्द्र सिंह यादव
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार सर |
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद अनुराधा जी |
वाह ! बहुत सुन्दर रचना ! कभी-कभी मौन भी असहनीय हो जाता है ! कुछ कहना कुछ सुनना भी ज़रूरी होता है ! खूबसूरत भावाभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना दी।🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद सुधा जी |
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ....... ,.25 दिसंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।