एकता –
खिंच रही थी घर में दीवार |पर
बटवारा होता कैसे संभव |अचानक बटवारा रूकने के पीछे छिपे कारण का खुलासा नहीं हो पाया था तब |एक दिन सब आँगन में बैठ बातें कर रहे थे |
उस दिन सच्चाई सामने आई |घर में दो सदस्य थे ऐसे जो पूर्ण रूप से
आश्रित थे | बिलकुल असमर्थ
कोई काम न कर पाते थे |बुढापे से जूझ रहे थे |प्रश्न था कौन उन्हे
सम्हाले ?तब एक ने सलाह दी थी क्यूँ न इन्हें वृद्ध आश्रम में पहुचा दें |मिल कर आ
जाया करेंगे |पर छोटे का मन नहीं माना |बात वहीं समाप्त हो गई थी तब |
तब से रोज लड़ाई होती थी उन की देखरेख के लिए |जब अति हो गई फिर से बटवारे की बात उठी
|दरार दिलों में और बढ़ी |ललक अलग रहने की
जागी| फिर बात वहीं आकर अटकी उनकी देखरेख कौन करे ?
अचानक कोरोना का कहर की दहशत से न उबार पाए आसपास के एकल परिवार | पर उनके
परिवार में एकता रंग लाई एक दूसरे की मदद से
कठिन समय से उभरने की शक्ति काम आई |
सभी ने वादा किया अब
अकेले रहने की कभी न सोचेंगे |एक साथ रहेंगे कठिनाई का सामना आपसी समन्वय से बहादुरी से करेंगे |
आशा
आशा
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१३ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार श्वेता जी मेरी लघु कथा की लिंक सोमवारीय विशेषांक में शामिल करने की सूचना के लिए |
हटाएंसुन्दर कथा ! संस्कार अभी भी कहीं कहीं आधुनिकता और स्वार्थपरता पर भारी पड़ जाते हैं ! बढ़िया लघुकथा !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंवाह!बहुत सुंदर सृजन आशा जी ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी पोस्ट पर टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद |
बहस सुन्दर सृजन...।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुधा देवरानी जी टिप्पणी के लिए |
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