
शाम ढले  उड़ती धूल
जैसे ही होता आगाज 
चौपायों के आने का 
सानी पानी उनका करती |
सांझ  उतरते ही आँगन में  
दिया बत्ती करती 
और तैयारी भोजन की |
चूल्हा जलाती कंडे लगाती 
लकड़ी लगाती
 फुकनी से हवा देती 
आवाज  जिसकी 
जब  तब  सुनाई देती |
छत के कबेलुओं से 
छनछन कर आता धुंआ 
देता गवाही उसकी 
चौके में उपस्थिति की |
सुबह से शाम तक 
घड़ी की सुई सी 
निरंतर व्यस्त रहती  |
किसी कार्य से पीछे न हटती 
गर्म भोजन परोसती  
छोटे बड़े जब सभी खा लेते 
तभी स्वयं भोजन करती |
कंधे  से कंधा मिला 
बराबरी से हाथ बटाती 
रहता सदा भाव संतुष्टि का 
 विचलित कभी नहीं होती |
कभी  खांसती कराहती 
तपती बुखार से 
 व्यवधान तब भी  न आने देती 
घर के या बाहर के काम में |
रहता यही प्रयास उसका 
किसी को असुविधा न हो |
ना जाने  शरीर में  
कब घुन लग गया 
ना कोइ दवा काम आई 
ना जंतर मंतर का प्रभाव हुआ 
एक दिन घर सूना हो गया 
रह गयी शेष उसकी यादें |
आशा 
 
 
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3680 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सूचना हेतु आभार सर |
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन आदरणीया दीदी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनीता जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंघर घर की यही कहानी ! घर की गृहणी इसी तरह उत्सर्जित कर देती है स्वयं को और किसीको खबर भी नहीं होती !
जवाब देंहटाएंधन्यवादसाधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२७ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!आशा जी ,बहुत सुंदर सृजन !
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