है दूर बहुत मेरा गांव
रोजी रोटी के लिए
निकला था घर से
अब पहुँचने को तरसा
फँस कर रह गया हूँ
महांमारी के चक्र व्यूह में
जाने अब क्या होगा
कब अपने गाँव पहुंचूंगा
अपने परिवार से मिलूंगा
मिल भी पाऊंगा या नहीं
या ऐसे ही दुनिया छोड़ जाऊंगा
पसोपेश में फंसा हुआ हूँ
जाऊं
या यहीं ठहरूं
कभी तो मन होता है
भगवान भरोसे सब को छोड़ दूं
कोई भी प्रयत्न है निरर्थक
फिर मन में कभी
आशा
जन्म लेती है
हार किसी से क्यों मानूं ?
जब तक जियूं जैसे जियूं
आशा
का दामन थामें रहूँ
ईश्वर पर आस्था सदा रहे
कर्मठ हूँ विश्वास मन का बना रहे
कभी ना छोडूं साथ आस्था का
जैसी भी परिस्थिति हो
उनका सामना करू |
आशा
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (01-05-2020) को "तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को " (चर्चा अंक-3688) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
"मीना भारद्वाज"
सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार मीना जी |
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद सर |
क्षणिक आवेश में कोई भी कदम उठाना अनुचित है ! आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए ! ईश्वर सबकी सहायता करते हैं !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
बड़ी कठिन डगर है.
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी करने के लिए धन्यवाद प्रतिभा दीदी |