30 अप्रैल, 2020

है दूर बहुत मेरा धर




है दूर बहुत मेरा गांव
रोजी रोटी के लिए
निकला था घर से
अब पहुँचने को तरसा
फँस कर रह गया हूँ
 महांमारी के चक्र व्यूह में
जाने अब क्या होगा
कब अपने गाँव पहुंचूंगा
अपने परिवार से मिलूंगा
मिल भी  पाऊंगा या नहीं
या ऐसे ही दुनिया छोड़ जाऊंगा
 पसोपेश में फंसा हुआ हूँ
 जाऊं या यहीं ठहरूं
कभी तो मन होता है
भगवान भरोसे सब को छोड़ दूं
कोई भी प्रयत्न है निरर्थक
फिर मन में कभी
 आशा जन्म लेती है
हार किसी से क्यों  मानूं ?
जब तक जियूं जैसे जियूं
 आशा का दामन थामें रहूँ
ईश्वर पर आस्था सदा रहे  
कर्मठ हूँ विश्वास मन का बना रहे
 कभी  ना छोडूं साथ आस्था का
जैसी भी परिस्थिति हो
उनका सामना करू |

आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (01-05-2020) को "तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को " (चर्चा अंक-3688) पर भी होगी। आप भी
    सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"


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    1. सुप्रभात
      मेरी रचना की सूचना के लिए आभार मीना जी |

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  2. क्षणिक आवेश में कोई भी कदम उठाना अनुचित है ! आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए ! ईश्वर सबकी सहायता करते हैं !

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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  3. उत्तर
    1. सुप्रभात
      टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद प्रतिभा दीदी |

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