पीताम्बर
धारण किया है
काली कमली ओढी
मोर मुकुट शीश पर सजा है
मोर मुकुट शीश पर सजा है
हुए है तैयार वन को जाने को
धेनुओं को चराने को
हाथों में बाँसुरी लिए हैं
संग लिए है ग्याल बालों को
दिन कब बीत जाता है
वहां
ज्ञात नहीं होता
सूर्यास्त होते ही
शाम की दस्तक होती है
ध्यान आता है कान्हां को
घर को करना है प्रस्थान
पर माखन चोरी तो रह गई
नींद कैसे आएगी उसके बिना
खैर कुछ देर और सही
यशोदा माँ की डांट सह्लेंगे
वे
एक घर के सामने रुके
जल्दी से खिड़की खोल
कूद गए भोजन कक्ष में
देखी दही की हांडी
खुद को रोक नहीं पाया
कुछ खाया कुछ फैलाया
कुछ मित्रों को खिलाया
फिर दौड़ लगा दी घर को
बेचारी गोपी
दौड़ी पीछे
पर हाथ न आ पाए
जब की शिकायत यशोदा माँ से
झूठा उसे ही ठहरा दिया
साफ निकले बच के
ऐसे हैं मन मोहन छलिया
कोई नहीं जान पाया
क्या मन में रहता उनके |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 21 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
हटाएंश्यामसलोने कृष्ण पर सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए सर |
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
धन्यवाद सुधा जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंनटखट कान्हा की लीलाएं ! इनका कोई अंत नहीं ! जितनी कष्टप्रद दिखती हैं उतना ही मन को लुभाती भी हैं ! सुन्दर शब्द चित्र !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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