है गरीबी एक अभिशाप
जब से जन्म लिया
यही अभिशाप सहन किया
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए
भूख शांत करने के लिए
पैसों का जुगाड़ करने के लिए
मां कितनी जद्दोजहद करती थी
सुबह से शाम तक
यहाँ वहां भटकती थी
खुद भूखी रह कर
बच्चों का पेट भरती थी
कभी कभी दिन भर
एक रोटी भी नसीब न होती थी
कडा दिल कर
बच्ची को गोदी में ले कर
बाहर काम करने निकली
पहले तो दुत्कार मिली
यह काम तुम्हारे बस का नहीं
अभी आराम करो
काम बहुत से मिल जाएंगे
पर बड़ी मिन्नतों के बाद
काम मिल पाया
काम मिल पाया
सुबह से शाम तक हाथ
काम करते नहीं थकते
पर गरीबी ने मुंह फाड़ा
कम न हुई बढ़ती गई
कहावत सही निकली
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया
पैसों की आवक बढ़ी
अब बुद्धि का हुआ ह्रास
बाहरी दिखावे नें हाथ बढाया
कर के उधारी
की आवश्यकताएं पूरी
वह भी उधार चंद हुई
फिर आए दिन की उधारी रंग लाई
मांगने वाले घर तक आ पहुंचे
भरे समाज में इज्जत नीलाम हुई
झूट के चर्चे सरेआम हुए
सारा सुकून खोगया
क्या ही अच्छा होता
यदि झूट का दामन न थामा होता
कठिन समय तो गुजर जाता
पर शर्मसार तो न होना पड़ता |
आशा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3743 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार दिलबाग जी |
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |
मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हिंदी गुरू जी टिप्पणी के लिए |
चिंतनपरक रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंसूचना के लिए धन्यवाद यशोदा जी |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मार्मिक सृजन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुधा जी टिप्पणी के लिए |
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