तुम क्यूँ भूले
वे बचपन की यादें
जब साथ मिलकर
खेलते खाते थे |
लंबित गृह कार्य
किया करते थे
जब तक पूर्ण ना हो
भूख प्यास सब
भूल जाते थे |
तब कितना प्रवल
अवधान था
प्रलोभन का
नामों निशाँ न था |
तुम रोज अपना काम करके
मेरा गृह कार्य
कर दिया करते थे
तुम्हीं ने बिगाड़ी थी
डाली थी आदत मेरी
परजीवी हो जाने की |
खुद कार्य करने की
जरूरत न समझी कभी
कभी आत्मनिर्भर हो न पाई
किसी की बैसाखी सदा चाही
ज़रा से काम के लिए ही |
अब भूल समझ में आई
पर अब बहुत देर हो गई है
अपना कार्य स्वयं करने की
आदत जो छूट गई है
अब पश्च्याताप से क्या लाभ
वे दिन लौट तो न पाएंगे |
आशा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 22 अक्टूबर अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए धन्यवाद सर |
बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबचपन याद आ गया।
सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना पर टिप्पणी के लिए आभार सहित धन्यवाद सर |
शानदार रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंपोस्ट की सूचना के लिए आभार सर |
जब तू जागे तभी सवेरा ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएं