बीतना चाहा इस वसंत ने
फागुनी हवा ने अपना हक़ माँगा
वह देने को तैयार ही
बैठा था
लौटने का मन
बनाया |
उसे इस बात का एहसास
पहले भी हुआ था पर
उसे
अपने मन का भ्रम जान
नजर अंदाज किया था |
पर्यावरण के परीवर्तन ने
दी गवाही फागुन आने की
वृक्षों के पत्ते झरने लगे
कुछ वृक्ष ऐसे भी थे जिनमें
कलियाँ प्रस्फुटित
होने लगी |
जैसे नव कलियों में से
झाँकते पलाश के पुष्प
दुनिया देखने को थे
बेकरार
खिले पुष्प हुआ
सुर्ख वृक्ष पूरा
अद्भुद सिंगार हुआ धरती का |
खेतों में नवल धान्य
तैयार
कर रहा प्रतीक्षा
होली की
चंग पर थाप दे करते नृत्य
फागुनी गाने
तैयार कर
रसिया नए सुनने
सुनाने को |
घर घर जाकर गीत गाना
फगुआ मांगना हुआ प्रारम्भ
सराबोर हुआ सारा
समाज
फागुन के रंग में भीगा
समाज
महिलाएं व्यस्त पकवान बनाना में |
मौसम का बदलता स्वभाव
स्पष्ट नजर आता
गर्मीं की आहट भी कभी
मन को मुदित करती |
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंअरे वाह ! होली की पदचाप सुनाई देने लगी है अब ! बहुत सुन्दर कविता ! मन खिल गया ! सेमल और पलाश और अमलतास अब खिलने को आतुर हो उठे हैं !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के पिए | |
हटाएंबदलाव की पदचाप सुनाई दे रही . सुन्दर .
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद सगीता जी
बसंत ऋतु सबकी मनभावन
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
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