शारीरिक व्यथा
का संज्ञान होता
व्यथित मन हो बेचैन
कहाँ ठहरता ज्ञात नहीं होता |
केवल अपने हित की सोचना
आत्म केन्द्रित हो कर रह जाना
स्वार्थ को जन्म देता
अकेला व्यक्ति क्या करे |
जीना तो सभी जानते
हैं
परहित की चिंता कम ही करते है
मतलब से मित्रता करते
तभी अक्सर दुखी रहते हैं |
केवल खाना सोना और
मौज मस्ती ही
सब कुछ नहीं होते
अपनी सेवा सब करते
पर दूसरों से दूर
रहते |
कुछ कार्य ऐसे होते
हैं
जिन के प्रतिफल
दूसरों की सेवा के
फल स्वरुप ही मिलते हैं
|
ईश्वर उन्हें ही
देता है सहारा
जो दूसरों के लिए
जीते और मरते हैं |
परहित के लिए किये
कार्य
मन को प्रसन्न करते हैं
आत्मसंतोष से
मन खिल उठाता है |
जीवन है एक
पानी के बुलबुले सा
बहुत कम समय
होता है उसके पास
कब होगा समाप्त किसे पता |
पुण्य कार्य किये जाते
जिनके फल और प्रतिफल
मिलते एक ही साथ |
कब क्या हो नहीं पता
इसकी समय सीमा
निर्धारित नहीं
तभी कहा जाता है
बहती गंगा में हाथ धो लो |
कुछ पुण्य कर लो
पानी का बुलबुला जब फूटेगा
आत्मा मुक्त हो विचरण करेगी
पुण्य फल ही साथ
जाएगा |
आशा
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका ओंकार जी
जवाब देंहटाएंपुण्यफल का तो पता नहीं आशा जी लेकिन इस स्वार्थ से भरी दुनिया में जो स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होना छोड़कर परहित के लिए कुछ कर सके, वह अभिनंदनीय ही है। विरले ही होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के पराये दुख को अनुभव करें, उसे दूर करने की सोचें और उस निमित्त कुछ करें।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने की सूचना के लिएआभार मीना जी
टिप्पणी के लिए धन्यवाद जितेन्द्र जी |
जवाब देंहटाएंजीवन का उदात्त दर्शन लिए बहुत ही गहन रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |