इस बार भी सूनी सड़कें
वीरान पड़े घर
कोई भी हलचल नहीं इधर उधर
इस तरह का अजीब सन्नाटा
कभी स्वप्न में भी न देखा था |
यह खामोशी देख लगा ऐसा
जैसे कोई बड़ी दुर्घटना हुई है
पर मालूम न था
फिर से कोरोना मुंह फाड़े खडा था
तभी लौक डाउन हुआ था |
दो टाइम की रोटी भी
नसीब न होती थी |
प्रवासी मजदूरों की दुर्गति
देखी नहीं जा सकती
बंद हुए सब पहुँच मार्ग
अपने गाँव घर पहुँचने के
पर उन्हें बेचैनी थी
अपने गाँव जाने की
अपनों से मिलने की
यहाँ उनकी सद्गति
नहीं हो सकती थी दूसरे प्रदेश में |
देश की आर्थिक व्यव्स्था
चरमराने लगी है
जनता की लापरवाही से
सावधानी न बरतने से
बनाए गए नियमों का
पालन न करने से
बहुत विकराल रूप
लिया है महामारी ने |
अभी तक नियंतरण नहीं है
इसकी रोक थाम में
अफवाहों की सीमा नहीं है
इसके निदान के लिए
हर बात का विरोध कियी जाता है
चाहे टीकाकरण हो या दवाएं |
ईश्वर न जाने किस बात की
सजा दे रहा है
जाने कब इससे छुटकारा मिलेगा
यह कठिन समय कैसे गुजरेगा
कुछ कहा नहीं जा सकता |
आशा
समसामयिक रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए ओंकार जी |
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29 -04-2021 को चर्चा – 4,051 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार दिलबाग जी |
आज की हकीकत को बयां करती समसामयिक रचना मैम!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद मनीषा जी |
कोरोना ने सबकी जान साँँसत में डाल दी है ! काम पर जाएँ तो जान पर बन आती है न जाएँ तो बिना धन के परिवार पर बन आती है ! आम इंसान का जीना मुश्किल हो गया है ! बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ! !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंसाधना टिप्पणी के लिए धन्यवाद |