28 अगस्त, 2021

बाँसुरी कान्हां की


 

कान्हां तुम्हारी बाँसुरी का स्वर

लगता मन को मधुर बहुत

खीच ले जाता वृन्दावन की गलियों में

मन मोहन जहां तुम धेनु चराते थे  |  

 कभी करील वृक्ष  तले बैठ

घंटों खोए रहते थे उसके जादू में

कल कल करतीं लहरें जमुना  की   

आकृष्ट अलग करतीं  |

ग्यालबाल गोपियों का मन

 न होता था घर जाने का

  विश्राम के पलों में भी   

दूर न जाना चाहते  |

 बांसुरी के स्वरों में खोकर

कब पैर ठुमकने लगते  

ग्वाल बाल हो जाते व्यस्त नृत्य में

झूम झूम कर नृत्य करते समूह में |

 केवल स्मृतियों में ही शेष रहे    

 मन मोहक स्वर बांसुरी  के  

जब बांसुरी के स्वर न सुनते    

तब मन अधीर होने लगता था  |

ना घुघरू की खनक

 न बंसी के स्वर आज

सूना सा जमुना तीर दीखता  

कभी  बहार थी जहाँ पर  |

आशा

    

18 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    धन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 28 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सुप्रभात
      आभार यशोदा जी मेरी रचना को आज के अंक में स्थान देने के लिए |

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-8-21) को "बाँसुरी कान्हां की"(चर्चा अंक- 4171) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा


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    1. सुप्रभात
      आभार कामिनी जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |

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  4. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद सुमन जी टिप्पणी के लिए |

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  5. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |

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  6. खूबसूरत रचना ! हमें भी यमुना किनारे पहुँचा दिया !

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    1. सुप्रभात
      धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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  7. बहुत सुंदर रचना , जय श्रीकृष्णा जी ।

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  8. कृष्ण की मनमोहक लीला के मानस दर्शन कराती हुई बहुत प्यारी रचना है। सादर।

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