कान्हां तुम्हारी
बाँसुरी का स्वर
लगता मन को मधुर बहुत
खीच ले जाता
वृन्दावन की गलियों में
मन मोहन जहां तुम धेनु
चराते थे |
कभी करील वृक्ष तले बैठ
घंटों खोए रहते थे उसके
जादू में
कल कल करतीं लहरें जमुना
की
आकृष्ट अलग करतीं |
ग्यालबाल गोपियों
का मन
न होता था घर जाने का
विश्राम
के पलों में भी
दूर न जाना चाहते |
बांसुरी के स्वरों में खोकर
कब पैर ठुमकने लगते
ग्वाल बाल हो जाते
व्यस्त नृत्य में
झूम झूम कर नृत्य
करते समूह में |
केवल स्मृतियों में ही शेष रहे
मन मोहक स्वर बांसुरी के
जब बांसुरी के स्वर न सुनते
तब मन अधीर होने
लगता था |
ना घुघरू की खनक
न बंसी के स्वर आज
सूना सा जमुना तीर दीखता
कभी बहार थी जहाँ पर |
आशा
बहुत बहुत सुन्दर मधुर रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 28 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंआभार यशोदा जी मेरी रचना को आज के अंक में स्थान देने के लिए |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-8-21) को "बाँसुरी कान्हां की"(चर्चा अंक- 4171) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएंआप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद सुमन जी टिप्पणी के लिए |
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |
खूबसूरत रचना ! हमें भी यमुना किनारे पहुँचा दिया !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
बहुत सुंदर रचना , जय श्रीकृष्णा जी ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंकृष्ण की मनमोहक लीला के मानस दर्शन कराती हुई बहुत प्यारी रचना है। सादर।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment ji
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