मन से सोचा
दिल से दोहराया
इतना प्यारा
फिर भी न अपना
घर दिल का
रहा कलुष भरा
स्वच्छ न हुआ
न थी दूरी उससे
जो तब रही
व्यवहार सतही
करते रहे
दिखावा रहा वह
अपनाया है
दिल से दिल मिला
अपना लिया
पूरी श्रद्धा से
गैरों सा व्यवहार
उससे किया
यह न्याय कहाँ है
देरी से सही
जब समझ आया
स्वीकार किया
नकारा तक नहीं
भ्रम नहीं है
प्यार मन से होता
दिखावा नहीं
जज्वा मन का रहा
अब समझ आया
आशा -
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 31 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंThanks for the information of the p o st
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-09-2021) को चर्चा मंच "ज्ञान परंपरा का हिस्सा बने संस्कृत" (चर्चा अंक- 4174) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंप्यार मन से होता
जवाब देंहटाएंदिखावा नहीं
जज्वा मन का रहा
अब समझ आया
सटीक.... सुंदर सृजन....
Thanks for the comment sir
हटाएंवाह ! खूबसूरत सृजन !
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