01 सितंबर, 2021

मंतव्य जीवन का


जब मिल बैठे  दीवाने दो

एक  भक्ति में आकंठ डूबा

दूसरा राग रंग से लिपटा

रहे व्यस्त अपने अपने में |

 है क्या दौनों में समानता

 जब तंद्रा टूटी जागे

अपनी  अपनी बात रखी दौनों ने

हम को कोई नहीं चाहता |

समाज के लिए कुछ न कर पाया 

रहां बोझ बन कर वहां पर

बहुत अपेक्षा  थी मुझ से पहला बोला 

पर नाकारा साबित हुआ  |  

भक्ति में डूबे व्यक्ति की धारणा  

 यही रही  बदली नहीं

 दूसरा भोग विलास में इतना डूबा

खुद पर नहीं नियंत्रण उसका |

कह न  सका क्या सोचा उसने 

स्वयम अनियंत्रित ही  रहा  

  स्वयं की  उलझनों  में हूँ  लिप्त  

 जीवन का है  मंतव्य क्या?

समझ नहीं पाया 

समझा नहीं सकता   |

आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह ! सार्थक चिंतन ! मेरे विचार से दोनों ही अकर्मण्य थे अपने अपने कारणों से ! दोनों आत्मकेंद्रित थे एक भक्ति में सुख ढूंढ रहा था अपने लिए दूसरा भोग विलास में ! जीवन में यदि दूसरों के काम आना चाहते हैं तो स्व से मुक्त होना ही होगा !

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: