जब मिल बैठे दीवाने दो
एक भक्ति में आकंठ डूबा
दूसरा राग रंग से
लिपटा
रहे व्यस्त अपने
अपने में |
है क्या दौनों में समानता
जब तंद्रा टूटी जागे
अपनी अपनी बात रखी दौनों ने
हम को कोई नहीं
चाहता |
समाज के लिए कुछ न कर पाया
रहां बोझ बन कर वहां पर
बहुत अपेक्षा थी मुझ से पहला बोला
पर नाकारा साबित हुआ |
भक्ति में डूबे
व्यक्ति की धारणा
यही रही बदली नहीं
दूसरा भोग विलास में इतना डूबा
खुद पर नहीं
नियंत्रण उसका |
कह न सका क्या सोचा उसने
स्वयम अनियंत्रित ही
रहा
स्वयं की उलझनों में हूँ लिप्त
जीवन का है मंतव्य क्या?
समझ नहीं पाया
समझा नहीं सकता |
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंवाह वाह ! सार्थक चिंतन ! मेरे विचार से दोनों ही अकर्मण्य थे अपने अपने कारणों से ! दोनों आत्मकेंद्रित थे एक भक्ति में सुख ढूंढ रहा था अपने लिए दूसरा भोग विलास में ! जीवन में यदि दूसरों के काम आना चाहते हैं तो स्व से मुक्त होना ही होगा !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
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