13 अगस्त, 2021

आखिर कब तक


कब तक यूंही डरते रहेंगे

खुल कर सांस ले न पाएंगे

मन को उदासी घेरेगी  

हर मुस्कान की भी कीमतें देंगे |

हंसना रोना सब हुआ पराधीन

क्या यही प्रारब्ध में लिखा है ?

जितना सोचो कम लगता है| 

 बहुत वितृष्णा होती है

अपनी पराधीनता पर

दासता की गंध आती है

जब खुद पर दृष्टि जाती है |

 स्वर्ण की हथकड़ी पहनी थी

पैर सजे थे चांदी की बेड़ियों से

खेलना खाना था मयस्सर

जीवन पहले बड़ा रंगीन दीखता था |

 आकर्षण उसका अपनी ओर आकृष्ट करता था

जब ठोस धरा पर कदम रखे

  भाव मन के कहीं लुप्त हुए स्वप्न जैसे 

बहुर यत्नों के बाद भी न मिल पाए |

जब तंद्रा से जागी

 खुद को पराधीन पाया

यही कटु सत्य है दुनिया का

यही समझ में आया |

समाज के नियमों में बंध  कर रहना

 इतना भी  सरल नहीं है

महिलाओं से मिले पूंछा परखा

वे पराधीनता से ढकी  हैं सर से पैरों तक |

हम कर्तव्यों से बंधे हैं अधिकारों से कोसों दूर

जब भी अपने अधिकार चाहे

सरलता से कह दिया जाता 

 समय कहाँ है तुम्हारे पास | 

आशा 

 

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