कब तक यूंही डरते रहेंगे
खुल कर सांस ले न पाएंगे
मन को उदासी घेरेगी
हर मुस्कान की भी कीमतें देंगे |
हंसना रोना सब हुआ पराधीन
क्या यही प्रारब्ध में लिखा है ?
जितना सोचो कम लगता है|
बहुत वितृष्णा होती है
अपनी पराधीनता पर
दासता की गंध आती है
जब खुद पर दृष्टि जाती है |
स्वर्ण की हथकड़ी पहनी थी
पैर सजे थे चांदी की बेड़ियों से
खेलना खाना था मयस्सर
जीवन पहले बड़ा रंगीन दीखता था |
आकर्षण उसका अपनी ओर आकृष्ट करता था
जब ठोस धरा पर कदम रखे
भाव मन के कहीं लुप्त हुए स्वप्न जैसे
बहुर यत्नों के बाद भी न मिल पाए |
जब तंद्रा से जागी
खुद को पराधीन पाया
यही कटु सत्य है दुनिया का
यही समझ में आया |
समाज के नियमों में बंध कर रहना
इतना भी सरल नहीं है
महिलाओं से मिले पूंछा परखा
वे पराधीनता से ढकी हैं सर से पैरों तक |
हम कर्तव्यों से बंधे हैं अधिकारों से कोसों दूर
जब भी अपने अधिकार चाहे
सरलता से कह दिया जाता
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंस्त्री विमर्श पर बहुत ही सशक्त रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |