जन्म लेते ही मैं जोर से रोया था
जग हंस रहा था खुशियाँ मना कर
क्या इसलिए कि एक और आया
अपनी तकदीर अजमाने इस दुनिया में |
कोई कष्ट न हुआ जब तक बचपन था
बचपन बीता खेल कूद में दुनियादारी से दूर
कभी हंसा कभी रोया पर
सब क्षणिक होता था |
किशोर वय में गैरअच्छे लगते अनुकरण के लिए
बड़ा बुरा लगता था अपनों का कहना
योवन आते ही आकर्षण बढ़ा बालिकाओं से
रिश्ते जोड़े वैध अवैध उनसे |
धीरे से जाने कब यह नशा भी उतरा
स्वप्नों में प्रभु की मूरत आए दिन दिखने लगी
हुआ झुकाव आध्यात्म की ओर
गुरु दीक्षा ले ली उसी में मगन हुआ |
जब शाम हुई जीवन की सारे सोच धीमें पड़े
शरीर साथ छोड़ चला मन भी थकने लगा
अब ख्याल आया इस जीवन से
आत्मा की मुक्ति का शरीर के पिंजरे से |
बार बार ईश्वर का नमन किया
अरदास में खोया रहा दया का भण्डार भरा
जब मृत्य थी समक्ष बंद कर आँखें पडा था
जग रोया मैं मन में हंस रहा था |
जब जिन्दगी का गीत समाप्त होने चला
स्वासों का कोटा समाप्त हुआ
यही रीत जग की रही सब ने देखा अनुभव किया
जब अन्त हुआ चार कन्धों पर हो सवार चला |
कुछ भी साथ नहीं ले चला मैं भी
भली बुरी यादें रह जातीं लोगों में
कुछ समय के बाद वे भी भूल जाते
कभी याद कर लिया जाता कर्मों का लेखा जोखा |
आशा
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसारे जीवन वृत्त को दोहरा दिया ! बढ़िया रचना ! हर जन की हर मन की कहानी !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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