संजीवनी बूटी कोई न होती
समय लगता बारम्बार
बीमारी से बच कर निकलने में
दवाई का प्रभाव देखने में |
वह कोई जादू की पुड़िया तो नहीं
कि बुखार भाग जाएगा
उसको देखते ही
छूमंतर हो जाएगा |
इस दवा का असर तो होता
पर समय बहुत लेता
फिर भी पूर्ण स्वस्थ न हो पाता
इन सब से उलझनें बढ़ती ही हैं|
दिन रात एक ही रट रहती
दवा से कोई लाभ न हुआ
कोई दूसरी दवा लाओ
इसका हल निकालो |
इस महामारी से
जीवन में सुकून का ह्रास हुआ है
जितनी भी सतर्कता रखी
बीमारी का रूप और भयावय होता गया |
बारम्बार एक ही विचार
मन में कौंधता रहा
क्या पहले ऐसी बीमारी की
कोई जगह न थी जन जीवन में |
बीमारी तब भी होतीं थीं
लोग भी परम धाम जाते थे पर
इतना महिमा मंडन किसी बीमारी का
कभी न होता था |
अब तो महामारी की चर्चा से भी
मन उचटने लगा है
अनजानी दहशत से
मन में विद्रुप भरा है |
विकट समस्या है ऎसी कि
थमने का नाम नहीं लेती
जितना भी सोचो
उलझन बढ़ती ही जाती |
आशा
सच है ! आजकल डर के साये में ही इंसान रहने लगा है ! अब ज़रा सी हरारत हो जाए, खाँसी ज़ुकाम हो जाए चिंता हो जाती है कहीं कोरोना तो नहीं है ! पहले बड़ी से बड़ी तकलीफ से कोई डर नहीं लगता था !
जवाब देंहटाएंसुप्रभार
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(14-12-21) को "काशी"(चर्चा अंक428)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |