कंगन डोरी हाथों की छूटी नहीं कि
गृहस्ती का कार्य प्रारम्भ किया
तब से अब तक एक लम्हां भी नहीं
मिला सांस लेने को |
हाथों की मेंहदी फीकी पड़ी न थी
ढेर झूठे बर्तनों का देख रहा राह मेरी
भरी आँखों से देखा यह मंजर
हाय रे मेरी किस्मत |
आज तक विश्राम के दो पल न मिले
तुम से मन की बातें करने को
है यह कैसा न्याय प्रभु
क्या मैं ही मिली थी सब अनुभवों के लिए ?
जीवन की एक समस्या जब तक निपटती
दूसरी हाथ फैलाए खड़ी होती
अभी तक अपने लिए चैन की
श्वास लेने का भी समय न मिला |
कोई स्वाद नहीं रहा मुंह में कसेला सा हो गया
क्या लाभ बीते कल पर दृष्टिपात का
अब वह लौट कर न आएगा
काल का पहिया आगे बढ़ता जाएगा
मन का क्लेश बढ़ा कर ही जाएगा |
जीवन है एक कठिन पहेली सा
जिसका हल न मिला अब तक
अंतिम समय आने तक
खुद का अस्तित्व ही भूल जाएगा |
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(12-12-21) को अपने दिल के द्वार खोल दो"(चर्चा अंक4276)
पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |
हर आम गृहणी की कहानी ! बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
खूबसूरत पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंघर घर की कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंहाथ में काम हो, मन में विश्राम हो और हृदय में राम हो, यही तो वास्तविक जीवन जीने की कला है
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने एक समस्या निपटाओं कि दूसरी खड़ी मिलती है...
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब वर्णन
सुप्रभात
हटाएंधन्यवाद प्रीती जी टिप्पणी के लिए |
बहुत सुंदर प्रेरणादायक सृजन
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद भारती जी टिप्पणी के लिए |