खुले पट मन मंदिर के
कौन झाँक रहा उनमें से
कभी ख्याल आता कहीं
उसका मनमीत तो नहीं |
बड़ी राह देखी उसकी
रहा इन्तजार उसी का अब तक
राह देखना समाप्त हुआ अब
और समय सामान्य हुआ है |
है मनमौजी अलमस्त वह
फिक्र नहीं पालता किसी की
कब कहाँ जाने का मन बना लेता
कोई नहीं जानता चिंता में डूबा रहता |
जिन्दगी के वे क्षण लौट न पाए
द्वार खुले रहते थे उसकी बाट जोहने में
मन को क्लेश होता रहता था
उसके इन्तजार में |
जाने कब राह देखना आदत में बदला
यह तक याद नहीं अब तो
निगाहें द्वार पर लगी रहतीं हैं
एक टक राह देखने में |
आशा
सुन्दर प्रस्तुति ! पता ही नहीं चलता इंतज़ार कब आदत बन जाता है ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए |
जिंदगी का मर्म छूती सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जिज्ञासा जी धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंकठिन होती हैं इंतजार की घडियां
जवाब देंहटाएंइंतजार करना वाकई मुश्किल होता है... सुंदर सृजन...
जवाब देंहटाएंइंतज़ार के दर्द को बयां करती बहुत ही मार्मिक रचना...!
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