15 फ़रवरी, 2022

हाइकु


                                           छाई  घटाएं 
 

बेमौसम वर्षा है 

सर्दी बढ़ेगी 


हआ  सबेरा 

सोती दुनिया जागी 

हुई सक्रीय 


क्या जुल्म नहीं 

है सताना किसी को 

कष्टकर है 


चांदी से  बाल 

चमकता चेहरा 

अनुभवी है 


सब देखना 

फिर वही बताना 

उलझाना ना 


उससे स्नेह 

बड़ा मंहगा पडा 

सस्ता नहीं 


मधुमालती 

कितनी है सुन्दर 

मन मोहती


यही मौसम 

सर्दी की ऋतू होती 

कष्टदायक 


मैं और तुम 

नदी के दो किनारे 

कभी न मिले 


मन बेचैन 

उफनती नदी सा 

न हुआ शांत 


आशा 


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-02-2022) को चर्चा मंच      "भँवरा शराबी हो गया"    (चर्चा अंक-4343)      पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      आभार सर मेरी रचना की सूचना के लिए |

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  2. उत्तर
    1. सुप्रभातं
      धन्यवाद विकास जी टिप्पणी के लिए |

      हटाएं
  3. बहुत सुन्दर हाइकु ! चंद पंक्तियों में सारा जीवन दर्शन बखूबी दर्शा देती हैं आप ! बहुत खूब !

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  4. धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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