छाई घटाएं
बेमौसम वर्षा है
सर्दी बढ़ेगी
हआ सबेरा
सोती दुनिया जागी
हुई सक्रीय
क्या जुल्म नहीं
है सताना किसी को
कष्टकर है
चांदी से बाल
चमकता चेहरा
अनुभवी है
सब देखना
फिर वही बताना
उलझाना ना
उससे स्नेह
बड़ा मंहगा पडा
सस्ता नहीं
मधुमालती
कितनी है सुन्दर
मन मोहती
यही मौसम
सर्दी की ऋतू होती
कष्टदायक
मैं और तुम
नदी के दो किनारे
कभी न मिले
मन बेचैन
उफनती नदी सा
न हुआ शांत
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-02-2022) को चर्चा मंच "भँवरा शराबी हो गया" (चर्चा अंक-4343) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
हटाएंआभार सर मेरी रचना की सूचना के लिए |
सुंदर हाइकु...
जवाब देंहटाएंसुप्रभातं
हटाएंधन्यवाद विकास जी टिप्पणी के लिए |
बहुत सुन्दर हाइकु ! चंद पंक्तियों में सारा जीवन दर्शन बखूबी दर्शा देती हैं आप ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएं