कविता की चन्द पंक्तियाँ
करतीं बेचैन मन उलझी लटों सी
कहने को है चंद पंक्तियाँ
पर बड़ा है पैना वार उनका |
खुले केश हों और उलझी लटें
फिर क्या कहने उनके
सुलझाए न सुलाझतीं
समय की कीमत न समझतीं |
मुझे यह बात उलझाए रखती
आखिर कैसे यह गुत्थी सुलझे
अधिक समय व्यर्थ न हो
इतने जरासे काम में
जब भी कोशिश करती सुलझाने की
और अधिक ही उलझन होती
खीचातानी के सिवाय बात न बनाती
जैसे ही बात बनती
एक नई कविता जन्म लेती |
आशा
खुद को समझ लेना ! अपनी कमियों को स्वीकार कर लेना और कुछ श्रेष्ठ सृजन के लिए दृढ़ संकल्प रखना बहुत सुन्दर विचार हैं !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना |
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