फासला 
                              फासला हमारे  बीच                                   बढ़ता गया 
कभी कम न हो पाया 
नदी के दो किनारे 
समानांतर  चलते गए साथ 
कभी एक न हो पाए |
मन में सदा बेचैनी रही 
आखिर कब मिलन होगा 
प्रेम वैसा ही रहा 
बहती नदिया सा |
जलधि  तक पहुँच 
नदी उस में मिली 
चाह मन में रह गई 
दौनों के मिलन की | 
 प्रारब्ध में यही था 
हम दौनों के 
फासला कभी भी 
कम न हुआ 
ना कभी  होगा  |
चाहे कितने भी 
व्यवधान आए मार्ग में 
पर मिठास कम न होगी 
रंग में भंग न होगा |
आशा
 
 
 
          
      
 
  
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५-०३ -२०२२ ) को
'गरूर में कुछ ज्यादा ही मगरूर हूँ'(चर्चा-अंक-४३८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार अनीता जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के चर्चा मंच में |
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनदी के तट दो होकर भी जुड़े ही तो हैं, सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनिता जीटिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर आशा लता जी.
जवाब देंहटाएं'सूली ऊपर सेज पिया की, किहि बिधि मिलना होय !'
कान्हा से मीरा का जीते-जी तो मिलन नहीं हो पाया किन्तु अंततः तो वह उन्हीं में समां गयी.
धन्यवाद।सर
हटाएंतथास्तु ! बढ़िया अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंधन्यवाद ज्योति जी टिप्पणी के लिए |
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