24 मार्च, 2022

फासला

फासला हमारे बीच

बढ़ता गया

कभी कम न हो पाया

नदी के दो किनारे
समानांतर चलते गए साथ

कभी एक न हो पाए |

मन में सदा बेचैनी रही

आखिर कब मिलन होगा

प्रेम वैसा ही रहा

बहती नदिया सा |

जलधि तक पहुँच

नदी उस में मिली

चाह मन में रह गई

दौनों के मिलन की |

प्रारब्ध में यही था

हम दौनों के

फासला कभी भी

कम न हुआ

ना कभी होगा |

चाहे कितने भी

व्यवधान आए मार्ग में

पर मिठास कम न होगी

रंग में भंग न होगा |
आशा

12 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२५-०३ -२०२२ ) को
    'गरूर में कुछ ज्यादा ही मगरूर हूँ'(चर्चा-अंक-४३८०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    उत्तर
    1. आभार अनीता जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के चर्चा मंच में |

      हटाएं
  3. नदी के तट दो होकर भी जुड़े ही तो हैं, सुंदर रचना !

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  4. बहुत सुन्दर आशा लता जी.
    'सूली ऊपर सेज पिया की, किहि बिधि मिलना होय !'
    कान्हा से मीरा का जीते-जी तो मिलन नहीं हो पाया किन्तु अंततः तो वह उन्हीं में समां गयी.

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  5. तथास्तु ! बढ़िया अभिव्यक्ति !

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  6. धन्यवाद ज्योति जी टिप्पणी के लिए |

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