भरी धूप में
सूर्य की गर्मीं सर पर
तुम्हारी परछाईं चलती
कदमों में तुम्हारे
जैसे ही आदित्य आगे बढ़ता
परछाईं भी बढ़ती आगे
पर साथ कभी ना छोड़ती
शाम को वह भी घर आती साथ तुम्हारे
तुम सोते वह भी सो जाती
तुम में विलीन हो जाती |
काश मैं तुम्हारी परछाईं बन पाती
अपने भाग्य को सराहती
तुम्हें अपने करीब पा कर
सभी ईर्ष्या करते मेरे भाग्य से |
मुझे है पसंद रहना करीब तुम्हारे
परछाईं बन कर साथ रहना तुम्हारे
कम ही लोग होते इतने भाग्यशाली
तुमसे जुड़े रहते साथ जन्म जन्मान्तर तक|
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज बुधवार (01-04-2022) को चर्चा मंच "भारत ने सारी दुनिया को, दिया शून्य का ज्ञान" (चर्चा अंक-4387) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सहित धन्यवाद सर मेरी रचना को आज के अंक में स्थान देने की सूचना के लिए |
हटाएंपरछाईं का तो धर्म ही होता है साथ रहना ! बहुत प्यारी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंशाम को वह भी घर आती साथ तुम्हारे
जवाब देंहटाएं'तुम सोते वह भी सो जाती
तुम में विलीन हो जाती |'- खूबसूरत अहसास !
सुप्रभात
हटाएंधनुवाद गजेन्द्र जी मेरी रचना पर टिप्पणी के लिए |