01 अप्रैल, 2022

समंदर


 हे समंदर हे जलनिधि

छिपी है अपार संपदा तुम में
कितने जीवों के हो रक्षक
यहीं उनका बसेरा होता |
अपार जल समाया है तुम में
हो तुम उसके के संरक्षक
यूँ जल कभी उद्वेलित नहीं होता
पर जब लांघता अपनी सीमाएं
क्रोधित हो बहुत क्षति पहुंचाता |
रूप तुम्हारा भयावय होता
जब कोई इस प्रपंच में फँस जाता
तुम्हारे अवगुण नजर आने लगेते उसे
गुणों को वह भूल जाता |
तुम जन्मदाता बादलों के
जो उड़ते व्योम में वाहक भाप के
जब मौसम में ठंडक होती
वर्षा बन कर बरसते |
वे कहाँ से आते यदि तुम नहीं होते 
हो कितने आवश्यक सृष्टि के लिए
तुम नहीं जानते या किसी को जताते नहीं
सृष्टि के लिए हो वरदान प्रभू का
या बड़ी नियामत उसकी  |इसे बार बार दिखाते |
पर अपनी महत्ता बताने की जगह
अपने विभिन्न रूप दिखा करअपना महत्व समझाते 
तुम बिन कैसे सृष्टि परवान चढ़ती
कैसे फलती फूलती विकसित होती
यही बात यदि समझा पाते बारम्बार तुम पूजे जाते |
हो तुम खारे जल के रक्षक
कोई नहीं भूल पाता उसे
प्यासा जब पास आता तुम्हारे
अपनी प्यास नहीं बुझा पाता
प्यासा ही रह जाता |
आशा सक्सेना 

2 टिप्‍पणियां:

  1. समंदर को पूरी तरह से व्याख्यायित करती बहुत सुन्दर सशक्त रचना ! बहुत खूब !

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात
    धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: