मधुर गीत गाने को संगीत बनाने को
समय की कोई पावंदी नहीं होती
पर मैं उलझी उलझी रहती हूँ
कहीं भटक न जाऊं बेसुरी न हो जाऊं |
हंसी का पात्र बनने का
मुझे कोई शौक नहीं
संगीत हो सुर ताल से परिपूर्ण
शब्दों हो रंगीन यही रुचिकर
मुझे |
गीत जब गाऊँ सभी जन सराहें
मुझे
मेरे मुंह से स्वर पुष्प झरें
मन की प्रसन्नता छलके
खुशी चहु ओर दिखे यही है
प्रिय मुझे |
जाने कब पूर्णता हांसिल हो
पाएगी
मेरे सपनों की दुनिया आबाद
हो पाएगी
एक यही अरमान है अधूरा मेरा
कुछ और अधिक की चाह नहीं मुझे |
करती हूँ अरदास अभ्यास
प्रति दिन
प्रभु करलो स्वीकार मुझे दो चरणों में स्थान
और शीश पर हाथ मेरे जिससे
मैं भवसागर से
तर पाऊँ पाकर तुम्हारा साथ |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-3-22) को "खिलता फागुन आया"(चर्चा अंक 4370)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
suprabhaat
जवाब देंहटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना की सूचना के लिए |
बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत ही ऊत्तम सृजन !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हर्ष जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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