राम राम बसा मेरे उर में
मैं दूर रहूँ कैसे तुमसे
जब तक राम नहीं होगा मन में
मेरा जीवन अधूरा रहेगा |
दिन रात एक ही रटन
जय हो सीता राम की राधे श्याम की
कुछ और नहीं सूझता
जीवन कैसे कटे हरि नाम बिना
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यह परिवर्तन आया कब कैसे
न जाने कब कितने समय से
उल्झन में हूँ किससे कहूं
कैसे अपने मन का समाधान करूं|
न जाने कितनी परीक्षाएं
मेरी लोगे
अपना अनुकरण सिखा देना
है यही संजीवनी बूटी
यही मुझे समझा देना |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-4-22) को "ऐसे थे निराला के राम और राम की शक्तिपूजा" (चर्चा अंक 4398) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना को आज के अंक में स्थान देने के लिए |
भक्ति भाव से युक्त सुन्दर रचना ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद सुधा जी टिप्पणी के लिए