तुम मौन हुए वह हुई मुखर
सारी सीमाएं लांघी संस्कारों की
सारे बंधन तोड़ दिए की मनमानी
आगे क्या होगा न सोचा उसने |
नहीं की चिंता आने वाले कल की
हुई गलत फहमी उसे
कि वह है सर्वे सर्वा घर की
यह है गरूर उसका या सोच आज का |
जो कुछ हुआ गलत हुआ है
दौनों को जिल्लत के सिवाय कुछ न मिला
वह हुई खुश झूठी शान में आई
अपने स्वर्ग को ही उसने आग लगाई |
कर्तव्य से मुंह उसने मोड़ा
तुम्हारे सर पर मटका फोड़ा
अब जब पटरी से गाड़ी उतरी
क्या करती मुंह छिपाया भागी घर से |
जितने मुंह उतानी बातें
सुन मन मेरा जार जार रोया
भगवान् से की प्रार्थना
दे सदबुद्धि उसे घर न तोड़े |
न जाने कब गाड़ी पटरी पर आएगी
घर की शान्ति बापिस आएगी
कुछ तुम समझो समझोता करो
यही है सलाह मेरी मन का शक दूर करो |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2022) को चर्चा मंच "दिल बहकने लगा आज ज़ज़्बात में" (चर्चा अंक-4492) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही विचारणीय कविता।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका बहुत
हटाएंधन्यवाद आपका बहुत
जवाब देंहटाएंकभी कभी बुद्धि पर पर जब नकारात्मकता हावी हो जाती है तब सोच भी कुंठित हो जाती है ! भले बुरे, उचित अनुचित का भान नहीं रहता ! शोचनीय स्थिति ! सार्थक सृजन !
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