कब तक मुझसे जुदा रहोगे
मैंने जब से स्वीकारा तुम्हें
हर दिन को गिन गिन कर काटा
कभी न सोचा क्या हुआ मुझे |
मेरी लगन है लगी जब तुमसे
पर प्रति दिन रहा इन्तजार तुम्हारा
मैंने इसे ही अपना कर्तव्य समझा
यही प्राथमिकता रही मेरे लिए भी
तुमने जिन आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने का
मैंने भी उसका ही बीड़ा उठाया
वही रहा मेरा भी उद्देश्य पर दूसरे नंबर पर |
अपने दाइत्व को पूर्ण करने का
जो जुनून सर चढ़ बोला किसी ने कहा
पहले अपने दाइत्व पूर्ण करो
फिर अपने मन को दो इजाजत
यहाँ वहां विचरण करने की |
क्या यह नहीं हो सकता
हम दोनो भी मिल जुल कर
क्या यह होगा संभव
\तुम्हारे कर्तव्य को पूर्ण करें
कब तक रहोगे दूर मुझसे
मुझको समझने की कोशिश करोगे
तुमने मुझे अपना समझा ही नहीं
प्यार का दिखावा खूब किया |
मन को ठेस लगी
तुम्हारा यह दुहरा रूप देख कर
क्या तुम को मेरा सान्निध्य पसंद नहीं किया
या कोई जरूरी कार्य तुम्हें वहां बांधे रखता |
आखिर कब तक जुदा रहोगे |
आशा सक्सेना
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ! वाह !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत खूब! ...कसक भरी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद गजेन्द्र जी टिप्पणी के लिए |
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