मनु को कभी ना तुमने समझा
ना ही मेरा अस्तित्व पहचाना
समझा उसे एक नादान बच्चा
और मुझे उसकी आया |
यदि हम यहाँ नहीं होते
घर कभी
घर नहीं हो पाता
उसमें कोई बस्ती नहीं होती
जब तुम आते घर वीरान नजर आता |
कोई ना आता पास तुम्हारे
घर की बस्ती होती वहां रहने वालों से
यदि हम ना होते घर कभी घर नहीं होता
घर का कोई वजूद नहीं होता |
जब तक तुम नहीं आते घर वीरान नजर आता
कोई ना आता पास तुम्हारे |
किसी की वर्जनाएँ बाल मन सह नहीं पाता
यदि किसी ने कुछ कहा बड़ा शोर होता
वह किसी से न सम्हलता दोष
मुझ पर आता |
यदि तुमने उसे न समझाया होता
वह नाराज होता रूठा रहता
लम्बे समय तक अकड़ा रहता
दो चॉकलेट लेकर
ही शांत होता
फिर गले से लिपटा जाता |
आशा सक्सेना
सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार
धन्यवाद यशोदा जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंबच्चों से ही घर में रौनक होती है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
धन्यवाद आपका
हटाएंमनु और स्नेही महतारी की व्यथा कथा।
जवाब देंहटाएंबालमन का सुन्दर चित्रण ! सुन्दर कविता !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपका
हटाएं