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कान्हां तुमारी बांसुरी से
बहुत ईर्षा होती है मुझे
रहती है तुम्हारे पास सदा
कभी अलग नहीं होती |
तुम्हारे अधरों  को स्पर्श कर 
वह जो सुख लेती है
मुझे नहीं मिलता
 मुझे सौतन सी लगती है |
एक बात पूंछूं तुमसे
उसने अधिकार जमाया तुम पर कैसे  
 कौन अधिक प्रिय है तुम्हें 
मैं या बांसुरी या और कोई |
अपने मन की बात क्यों छिपाई   मुझसे 
है यह कहाँ का न्याय 
मुझ में क्या कमी है  
जो तुमने बिसराया मुझे |
तुम्हें वे सब अच्छे लगते हैं
जो मुझे तुमसे दूर करते हैं 
जब जंगल में धैनूं चराते 
ग्वाल बाल के संग 
मेरी याद कभी ना करते
 क्या मैं उन सब से बुरी हूँ 
मैंने कभी ना की शिकायत
 तुम्हारी माँ यशोदा से
शायद यही भूल की मैंने
 कोई बात ना बताई उनको  
यदि मुझसे दूर रहोगे
 मेरे मन को संतप्त करोगे 
मेरे बिन तुम अधूरे रह जाओगे 
पहले मेरा ही नाम लिया जाता है
मुंह से निकलता है राधे  श्याम |
मुझे क्रोध ना दिलाओ
अपने से दूर ना करो
यही कामना है मेरी    
 
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बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंवाह ! राधा की व्यथा को बड़ी सार्थक अभिव्यक्ति दी ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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