एक अनोखे सोच ने
कपकपा दिया तन मन को ऊपर से नीचे तक
मुझे मजबूर करता सोचने को
कि मेरा वजूद क्या है ?
ना कभी किसी ने मुझे टोका ना रोका
जो मन को अच्छा लगा किया
जैसे जीना था जिया
हर बात मैं अपनी चलाई मनमानी की |
जब तक किसी का कहना ना माना
आगे पीछे का ना सोचा
समाज से भी दूर किया खुद को
यही सही ना किया |
किसी का प्यार पा ना सका
किसी को दिल से अपना ना सका
किसकी गलती रही होगी
यह भी जान ना पाया |
फिर सोच उभर कर आया मेरा कसूर क्या है
लोग अपना विचार तो नहीं करते
दूसरों पर सब गलतियां थोप
चैन की सांस लेते हैं |
आशा सक्सेना
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं