04 फ़रवरी, 2010

क्षणिका

आज के इस शुभ अवसर पर ,
है स्वागत आगत आज आपका ,
नित नयी प्रीत प्रगाढ़ बनाये ,
है दिन सब के सौभाग्य का|
आशा

03 फ़रवरी, 2010

तुम मुझे अपनी सी लगती हो






तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो
जब मै मै नहीं होता
तुम में समा जाता हूँ
और न जाने कहाँ गुम हो जाता हूँ |
तुम मुझे अपनी सी लगती हो
जब जाड़े की धूप सी
मुझे छू जाती हो
और शाम को सिमट कर
कहीं छुप जाती हो |
तुम्हारा अस्तित्व मुझे
यह आभास कराता है
कि मैं एक विकसित होता पौधा हूँ
तुम हो एक प्रतान
मुझे बढ़ाती हो
सँवारती हो
पल्लवित होने का
पुष्पित होने का
अवसर खोज लाती हो |
तुम मुझे बहुत प्यारी लगती हो
जब मै तुम में खो जाता हूँ
स्वयं अपने को भूल जाता हूँ
नित नए सोच उभरते हैं
मै उनमें बह जाता हूँ |
तुम में मिलती है मुझे
एक तस्वीर नई
मै उसमें समा जाता हूँ
साथ तुम्हारा पा कर
भावों में बहता जाता हूँ |
मन में उठते भावों को
तुम पर ही लुटाता हूँ
तब मैं मैं नहीं रहता
तुम में ही समा जाता हूँ |
क्या तुम हो अनजान पहेली सी
मै रोज जिसे हल करता हूँ
मै तुम में खुद को पाता हूँ
तुम मुझे सुहानी लगती हो
जब तुम में मैं खो जाता हूँ |

आशा

02 फ़रवरी, 2010

क्षणिका

विदाई के क्षण होते भारी,
कुछ मीठी कुछ यादें खारी ,
सदा यही क्रम रहता जारी ,
प्रीत हमारी पर अनियारी |

01 फ़रवरी, 2010

बात पिछले साल की

पिछले वर्ष ण जाने क्या हुआ इन्द्र देव अचानक रूठ गए |जब गर्मी आई तो बिना पानी के बहुतसी कठिनाइयों का
सामना करना पड़ा |पहले नल रोज आते थे ,फिर ४ दिनमें एक बार और बाद में यह स्थिती हो गई की नल में
टपकती पानी की एक बूंद देखने को भी तरस गए |टेंकरों से दूर दूर से पानी लाया जाता था | अन्य स्त्रोतों को भी सफाई
के बाद उपयोग में लाया गया |पर फिर भी पूर्ति ण हो पाई
शहर से बहुत दूर के जल स्त्रोत से चैनल कटिंग कर बहुतही महंगी योजना अपना कर पानी सोने के भाव उपलब्ध हुआ |पर जैसेही स्थिति सामान्य हुई ,मानसून सक्रीय हुआ हमें अखवार में पढने को मिला की इतनी
मेहनत से बनाई गई चैनल को समाप्त किया जा रहा है | मै कई दिन तक सोचती रही उसको तोड़ने से क्या फायदा
हुआ इतना धन उसे बनाने में लगा और फिर उसे तोड़ने में |क्या यह धन का दुरूपयोग नहीं है ? यदि उस स्त्रोत
के जल का उपयोग नहीं करना था तब भी उसे यथावत रख कर फिर किसी कठिन समय के लिए सहेजा जा सकता था |क्या पता कब इसकी आवश्यकता हो जाती |पर शान को कौन समझाए ,बार बार की तोडा फोड़ी सरकारी
खर्च को बढ़ती है | इससे लाभ की जगह हानी ही होती है जितना सरकार खर्च करती है ,उसका प्रभाव आम नागरिक
पर ही तो पड़ता है |
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30 जनवरी, 2010

मन चंचल

मन चंचल है ,
नहीं कुछ करने देता ,
तब सफलता हाथों से ,
कोसों दूर छिटक जाती है ,
उस चंचल पर नहीं नियंत्रण ,
इधर उधर भटकता है ,
और अधिक निष्क्रिय बनाता है ,
भटकाव यह मन का ,
नहीं कहीं का छोड़ेगा ,
बेचैनी बढ़ती जायेगी ,
अंतर मन झकझोरेगा ,
क्या पर्वत पर क्या सागर में ,
या फिर देव स्थान में ,
मिले यदि न शांति तो ,
क्या रखा है संसार में ,
साधन बहुत पर
जतन ना किया तब ,
यह जीवन व्यर्थ अभिमान है
मन चंचल यदि बाँध ना पाए ,
सकल कर्म निष्प्राण है |
आशा







27 जनवरी, 2010

रिश्ते

जीवन सरल नहीं होता
हर कोई सफल नहीं होता
यदि किताबों से बाहर झाँका होता
अपने रिश्तों को आँका होता
कठिन घड़ी हो जाती पार
जीवन खुश हाल रहा होता |
पहले भी सब रहते थे
दुःख सुख भी होते रहते थे
इस समाज के नियम कड़े थे
फिर भी जीवन अधिक सफल थे |
सुख दुःख का साँझा होने से
कभी अवसाद नहीं होता था
जीवन जीना अधिक सहज था
पर आज जीना हुआ दूभर |
कभी सोचा है कारण क्या
हम रिश्तों को भी न समझ पाए
केवल अपने में रहे खोये
संवेदनायें मरने लगीं
और अधिक अकेले होने लगे |
रिश्तों की डोर होती नाज़ुक
अधिक खींच न सह पाती
यदि समझ न पाए कोई
रिश्तों को बिखरा जाती |
मन पीड़ा से भर उठता
कोई छोर नजर नहीं आता
ग्रहण यदि लग जाये
घनघोर अँधेरा छा जाता |
जिसने रिश्तों को समझा
गैरों को भी अपनाया
वही रहा सफल जीवन में
मिलनसार वह कहलाया |

आशा


26 जनवरी, 2010

मुमताज़ की तलाश...

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...

कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।

साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"

शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"

राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"

सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"

"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।

"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।

इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?

इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।

पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।

एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।

फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"

और पटाक्षेप हो गया।