26 फ़रवरी, 2011

झूठी आशा


चुभन नागफणी की
दरकते रिश्ते
मन में नफरत ने घर किया
व्यंग बाणों ने मन को
छलनी कर दिया |
कटुता ने पैर पसारे
विचार शून्य मन हुआ
रूखे रिश्ते सतही व्यवहार
पीठ मुड़ते ही
कटु शब्दों के बाण
कर देते जीना हराम|
क्या सभी होते सराबोर बुराई में
उनमें कुछ भी अच्छा नहीं होता
कभी उन पर भी ध्यान दिया जाता |
मखमल में लपेट किये गये वार
कितनी गहराई तक चुभते हैं
इसका भी भान नहीं रहता
बेबात छिड़ जाती बहस
इस हद तक पहुँच जाती
क्या सही क्या होता गलत
सुध इसकी भी नहीं रहती |
लगती है परम्परा बुराई खोजने की|
निंदा रस का आनन्द पा
ख़ुद ही प्रसन्न हो कर
संतुष्ट हुआ जा सकता है
पर केवल अहम की तुष्टि के लिये
किया गया अपमान सहना
सबकी मानसिकता नहीं होती
चुभन काँटों की सहन नहीं होती |
अब तो लगने लगा है
जो जैसा है वैसा ही रहेगा
उसमें परिवर्तन की आशा
है छलावा मृगतृष्णा सा
जिसके पीछे भागना
है केवल समय की बर्बादी |

आशा

यह भी देखें |आशा करती हूँ यह लाइनें दोहे की श्रेणी में आती हैं :-

वार तर्क कुतर्क का, होता है आसान |
शायद आज के सोच का, यही है विधान ||


आशा





25 फ़रवरी, 2011

कलाकार

घुंघराले केश ,कशिश आँखों में
है वह कौन
जो अक्सर दिखाई देता है
किसी ना किसी आयोजन में
अनजाना लगता है
पर रहता विशिष्ट हर महफिल में |
उसकी सूरत ,मधुर आवाज और सीरत
करते आकर्षित उस ओर
उसे महत्त्व मिलता है हर सम्मलेन में |
वह गायन से या वायलिन वादन से
जलवे बिखेरता हर महफिल में
कुछ ऐसी छाप छोडता है
कमीं न होती प्रशंसकों की |
तालियों का सिलसिला जब भी चलता
दुगुना उत्साह उसमें भरता
है वह एक कलाकार उस बैंड का
जो आये दिन बुलाया जाता है
किसी न किसी आयोजन में
है वह जन्म जात कलाकार
पा कर आया है आशीष
माँ शारदे के कर कमलों का |

आशा


कसक

होती है कितनी कसक
जब कोई साथ नहीं देता
बेगानों सा व्यहार उसका
मन उद्विग्न कर जाता |
कई समस्याएँ हैं जीवन में
उन से जूझ नहीं पाता
जब तन मन साथ नहीं देता
निराशा से घिरता जाता |
उम्र के इस मोड़ पर
नहीं होता चलना सरल
लम्बी कतार उलझनों की
पार पाना नहीं सहज |
हमराही का साथ पा
मानसिक बल मिलता है
ह्रदय मैं उठी वेदना
कुछ तो कम हों सकती है |
पीछे मुड कर देखना
उसे ओर बढ़ावा देता है
पर अक्षमता का अहसास
मन विचलित कर देता है |
जीवन अकारथ लगता है
बढ़ता जाता बोझ पृथ्वी पर
मन बोझ तले दब जाता है
असंतोष घर कर जाता है |
आँसुओं का उमढ़ता सैलाब
थमने का नाम नहीं लेता
वेदना ओर बढ़ जाती है
वह चिर विश्रांति चाहता है |

आशा



22 फ़रवरी, 2011

एक भूल हुई

ना जाने कब उसे
अपनी चाहत समझ बैठा ,
है वह कौन
जान नहीं पाया |
खिलते फूल सी मुस्कान
भीड़ के बीच खोजना चाही
खोजता ही रह गया
नहीं जान पाया है वह कौन |
कई पत्र लिखे
लिख कर फाड़े
कुछ भेजे, कुछ पड़े रहे
उत्तर एक का भी
आज तक नहीं आया |
अब तो अकेलापन
जहरीले कंटक सा चुभता है
वह जाने कहाँ खो गयी
मुझे बेचैन कर गयी |
अपने सामने पा कर उसे
कुछ मन की कहने के लिये
उसकी मौन स्वीकृति के लिये
बेतहाशा तरसा हूँ |
सोचता हूँ कोई उपाय खोजूँ
उस तक पहुँच पाने का
उसे यदि खोज पाऊँ
व्यथा अपने मन की
उसे सुनाऊँ |
बदनाम हुआ जिसके लिए
बस सपनों में ही आती है
कभी हँसाती तो कभी रुलाती है
दिल की बात अनकही रह गयी है
मन में निराशा घर कर गयी है |
कभी कभी ऐसा लगता है
शायद कभी न मिल पायेंगे
अनजाने में एक भूल हुई
खुद पर इतना ऐतबार किया
उसे अपनी चाहत बना बैठा
जब चाहत पूरी न हुई
खुद को गुनाहगार मान बैठा |

आशा







मेहनतकश

मेहनतकश हैं
धूप में करते काम
श्रमकण उभरते माथे पर
फिर भी नहीं करते आराम |
सड़क के किनारे
कच्चे झोंपड़ों में
रहते गुदड़ी के लाल
काटते रात उन्मुक्त आकाश तले |
रहते प्रकृति के सानिध्य में
सुबह चूल्हे पर बनी रोटी
कच्ची प्याज मिर्च दाल या सब्जी
देती पेट को आधार |
पूरे दिन की कठिन मेहनत
उससे मिलते चंद सिक्के
और संतुष्टि
ले जाती गहरी नींद की बाहों में |
वे हैं शायद बहुत सुखी
समस्त व्याधियों से दूर
किसी जिम में नहीं जाते
कोई दवा नहीं खाते |
लगते हैं पोस्टर श्रम के महत्व के
या प्राकृतिक चिकित्सा के
मुझे तो लगते सन्देश वाहक
शारीरिक श्रम के महत्त्व के |

आशा






20 फ़रवरी, 2011

मुझे न तोलना कभी

मुझे न तोलना कभी
मानक रहित तराजू से
जो सत्य का साथ न दे
झूट पर ही अटल रहे
ऐसे बेमानी रिश्तों की टीस
होती है क्या तुम नहीं जानते|
जो दर्द उठता है
उसे समझ नहीं पाते
मन बोझिल होने लगता है
सारी अनर्गल बातों से
चोटिल मन को साथ लिए
घूमना कितना मुश्किल है
उसे जानना सरल ही नहीं नामुमकिन है|
ऐसा ही अहसास सब को होता है
जब संवेदनाएं हावी होती हैं
मन विगलित होने लगता है
इसका प्रभाव क्या होगा
तुम समझ नहीं पाते |
क्यूँ कि तुम खुद को
उस स्थान पर रख कर
सोचने की कोशिश ही नहीं करते
मन में उठती टीस का
अनुभव नहीं करते
दूसरे के मनोंभाव को
तोल नहीं सकते
जो खुद सोचते हो
उसे
ही सत्य समझते हो |

आशा


17 फ़रवरी, 2011

क्या वह बचपना था

कई रंगों में सराबोर गाँव का मेला
मेले में हिंडोला
बैठ कर उस पर जो आनंद मिलता था
आज भी यादों में समाया हुआ|
चूं -चूं चरक चूं
आवाज उसके चलने की
खींच ले जाती उस ओर
आज भी मेले लगते हैं
बड़े झूले भी होते हैं
पर वह बात कहाँ जो थी हिंडोले में|
चक्की ,हाथी ,सेठ ,सेठानी
पीपड़ी बांसुरी और फुग्गे
मचलते बच्चे उन्हें पाने को
पा कर उन्हें जो सुख मिलता था
वह अब कहाँ|
आज भी खिलौने होते हैं
चलते हैं बोलते हैं
बहुत मंहगे भी होते हैं
पर थोड़ी देर खेल फेंक दिए जाते हैं
उनमे वह बात कहाँ
थी जो मिट्टी के खिलौनों में |
पा कर उन्हें
बचपन फूला ना समाता था
क्या वह बचपना था
या था महत्व हर उस वस्तु का
जो बहुत प्रयत्न के बाद
उपलब्ध हो पाती थी
बड़े जतन से सहेजी जाती थी |

आशा