बंधन ही बंधन
आसपास उनका घेरा
कभी समाज का बंधन
कभी खुद पर ही
स्वयं का नियंत्रण |
जिस ओर दृष्टि दौड़ाई
बेचैन दिल हुआ
क्या किया था मैंने ऐसा
मुझे ही सोचने को
बाध्य होना पडा |
क्या होना चाहिए था
और क्या हो गया ?
बंधनों की हर नई खेप
अब तो कर देती है
विचलित मुझे |
कौनसा मापदंड अपनाऊँ
किससे दिल का हाल बताऊँ
शायद कोई तो मुझे
समझ पाया है अब तक
या है मेरे मन का बहम |
अब बहम से दूरी चाह रही हूँ
मन के सुकून के
बहुत नजदीक आ गई हूँ
अब तोड़ना चाहती हूँ
नहीं होते अब बंधन सहन मुझे |
जी चाहता है काटूं हर बंधन
खुले आसमान में उड़ती फिरूं
सभी बंधनों से हो कर मुक्त
खुद जियूं और जीने दूं सभी को |
मुझे भी एहसास हो
कि स्वतंत्रता है क्या
जीने का आनंद है क्या |
आशा