बंधन ही बंधन
आसपास उनका घेरा
कभी समाज का बंधन
कभी खुद पर ही
स्वयं का नियंत्रण |
जिस ओर दृष्टि दौड़ाई
बेचैन दिल हुआ
क्या किया था मैंने ऐसा
मुझे ही सोचने को
बाध्य होना पडा |
क्या होना चाहिए था
और क्या हो गया ?
बंधनों की हर नई खेप
अब तो कर देती है
विचलित मुझे |
कौनसा मापदंड अपनाऊँ
किससे दिल का हाल बताऊँ
शायद कोई तो मुझे
समझ पाया है अब तक
या है मेरे मन का बहम |
अब बहम से दूरी चाह रही हूँ
मन के सुकून के
बहुत नजदीक आ गई हूँ
अब तोड़ना चाहती हूँ
नहीं होते अब बंधन सहन मुझे |
जी चाहता है काटूं हर बंधन
खुले आसमान में उड़ती फिरूं
सभी बंधनों से हो कर मुक्त
खुद जियूं और जीने दूं सभी को |
मुझे भी एहसास हो
कि स्वतंत्रता है क्या
जीने का आनंद है क्या |
आशा
बंधन में रहना तो किसी बच्चे को भी कबूल नहीं होता ...
जवाब देंहटाएंमन की चहात हर बंधन को काटना चाहती है ... सुन्दर रचना है ...
धन्यवाद नासवाजी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबन्धन तक तो ठीक है मगर प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिए।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्मिता जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंमन, विचार, कल्पनाएँ. भावनाएं सभी उन्मुक्त होती हैं ! हर इंसान जिसकी सोच उन्मुक्त है वह किसी बंधन में बँध ही नहीं सकता ! भौतिक नहीं वैचारिक स्वतन्त्रता का आनंद उठाना चाहिए ! यही सबसे बड़ी बात है !
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