मानवता -
हुई मानवता शर्मसार
रोज देखकर अखवार
बस एक ही सार हर बार
मनुज के मूल्यों का हो रहा हनन
ह्रास उनका परिलक्षित
होता हर बात में
आसपास क्या हो रहा
वह नहीं जानता
जानना भी नहीं चाहता
है लिप्त आकंठ
निजी स्वार्थ की पूर्ति में
किसी भी हद तक जा सकता है
सम्वेदना की कमीं हुई है
दर्द किसी का अनुभव न होता
वह केवल अपने मे
सिमट कर रह गया है
सोच विकृत हो गया है
दया प्रेम क्या होता है
वह नहीं जानता
वह भाव
शून्य हुआ है
मतलब कैसे पूरा हो
बस वह यही जानता
आचरण भृष्ट चरित्र निकृष्ट
और क्या समझें
है यही सब चरम पर
मानवता शर्मसार हुई है
अनियंत्रित व्यबहार से
चरित्र क्षरण हो गया है
आए दिन की बात
समाज में विकृतियों का आवास
यह हनन नहीं है तो क्या ?
मानव मूल्यों का |