11 अप्रैल, 2010

चाँद, मैं और मेरी बेटी

तारों भरी रातों में ,
अक्सर भर जज़बातों में ,
तारों से बातें होती हैं ,
अपनों की याद सँजोती हैं ,
तारों की चमक और आकाश गंगा ,
रातों की संबल होती है,
तारों को जी भर कर देखा ,
और अपनों को याद किया ,
अपना तारा खोजा मैंने ,
उस पर रहने का विचार किया ,
झिलमिल तारों की बारात छोड़,
जैसे ही पूर्ण चंद्र आया ,
चाँदनी का आकर्षण ,
मुझे बाहर खींच लाया ,
ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे ,
चुपके से आना उसका ,
कभी दीखती बहुत चपल ,
फिर गुमसुम हो जाना उसका ,
धीमी घुँघरू की छनछन,
मन में तरंग जगाने लगी ,
मीठे गीतों की स्वर लहरी ,
बन तरंग छाने लगी,
चाँदनी की शीतलता का ,
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ ,
जब चाँद को देखा मैंने ,
छिपे प्यार का इज़हार हुआ ,
इतने में इक तारा टूटा ,
सपना मेरी चाहत का ,
इसी समय मन में फूटा ,
जल्दी से नयन मूँदे अपने ,
टूटे तारे से मैंने ,
मन की मुराद को माँग लिया ,
जब मैं बहुत छोटी सी थी ,
मेरी माँ अक्सर कहती थी ,
चन्दा में एक बुढ़िया रहती है ,
वह चरखे पर बैठ सदा ,
सूत कातती रहती है ,
मैंने बहुत ध्यान से देखा ,
वह बुढ़िया नज़र नहीं आई ,
केवल काले-काले धब्बे ,
और ना कुछ देख पाई,
जब चाहत मेरी रंग लाई ,
पूर्ण चंद्र सी बेटी ,
मेरे आँगन में उतर आई ,
दमन खुशियों से भर लाई ,
वह अक्सर चाँद देखती है ,
उसको पाने को कहती है ,
काफी सोच विचार किया ,
फिर से याद पुरानी आई ,
आँगन में ले आई थाली ,
उस में भर पानी मैंने ,
थाली में चाँद उसे दिखाया ,
उसे खुशी से झूमता पाया ,
फिर चाँद पकड़ने की कोशिश में ,
नन्हा हाथ थाली तक आया ,
जैसे ही हाथ थाली तक पहुँचा ,
चंदा को दूर खुद से पाया ,
वह प्रश्न अनेकों करती है ,
कई-कई सोच बदलती है ,
चंदा क्यूँ पास नहीं आता ,
ऐसे क्यूँ उसको तरसाता ,
वह तो उससे मिलना चाहे ,
इतनी सी बात ना समझ पाता ,
चरखे वाली नानी शायद ,
उसको नहीं आने देतीं ,
या है कोई अन्य समस्या ,
उसको नहीं खेलने देती ,
चंदा तो सदा दूर ही होगा ,
कभी पास ना आयेगा ,
यह कैसे उसको समझाऊँ ,
उसका मन कैसे बहलाऊँ |


आशा

07 अप्रैल, 2010

सौंदर्य बोध

गीत हजारों बार सुने
चर्चे भी कई बार किये
सच्ची सुंदरता है क्या
इस तक न कभी पहुँच पाये
तन की सुंदरता तो देखी
मन की सीरत न परख पाये
ऐसा शायद विरला ही होगा
जो तन से मन से सुंदर हो
सुंदर सुंदर ही रहता है
मन से हो या तन से हो
यदि कमी कोई ना हो
फिर शिव वह क्यों ना कहलाये
यह तो दृष्टिकोण है अपना
किसको सुंदर कहना चाहे
जिसको लोग कुरूप कहें
वह भी किसी मन को भाये
आखिर सुंदरता है क्या
परिभाषा सुनी हजारों बार
जो प्रथम बार मन को भाये
सबसे सुंदर कहलाये
नहीं जरूरी सब सुंदर बोलें
विशिष्ट अदा को सब तोलें
जिसने चाहा और अपनाया
उसने क्या पैमाना बनाया
तन की सुंदरता देखी
मन को नहीं माप पाया
जिसने जिस को जैसे देखा
अपने मापदण्ड से परखा
उसको विरला ही पाया
अन्यों से हट के पाया
जब आँखें बंद की अपनी
कैद उसे आँखों में पाया
तन तो सुंदर दिखता सबको
मन को कोई न समझ पाया
ऐसा कोई नाप नहीं
जो सच्चा सौंदर्य परख पाता
सबने अपने-अपने ढंग से
सुंदरता को जाँचा परखा
ख़ूबसूरती होती है क्या
कोई भी नहीं जान पाया
यह तो अपनी इच्छा है
किसको सुंदर कहना चाहे
वही मापदण्ड अपनाये
जो उसके मन को भाये |


आशा

04 अप्रैल, 2010

मानसिकता

सब कुछ तुम सहती जाओ ,
उपालंभ तुम्ही को दूँगा ,
धरती सी तुम बनती जाओ ,
साधुवाद न तुमको दूँगा ,
मैं सारे दिन व्यस्त सा रहता हूँ ,
तुम कुछ ना करो मैं कहता हूँ ,
पर यदि कोई त्रुटि हो जाये ,
इसे नहीं मैं सहता हूँ ,
तुममें मुझ में अंतर कितना ,
मैं यह भी न भुला पाया ,
जब भी कोई बात चली ,
खुद को ही महत्व देता आया ,
अनुमति यदि तुमने ना माँगी ,
यह बात सदा दुख देती है ,
यदि मन की बात न कह पाऊँ ,
वह मन में घुटती रहती है ,
अनजान व्यथा मन में मेरे ,
ऐसे घुस कर बैठी है ,
पीड़ा जब हद से गुजरे ,
मन की भड़ास निकलती है ,
अंतर यह सदियों से है ,
इसे पाटना मुश्किल है ,
हर बात तुम्हीं से कहता हूँ ,
तुमसे सलाह भी लेता हूँ ,
पर जब कोई अवसर आए ,
सब श्रेय खुदी को देता हूं ,
मेरी इस अवस्था को ,
शायद तुम ना समझ पाओगी ,
हर बात यदि तुम दोहराओगी ,
मुझको रूखा ही पाओगी ,
दूसरों से यदि तुलना की तुमने ,
मुझसे दूर होती जाओगी ,
लाख कोशिशें करलो चाहे ,
मुझे तुम ना बदल पाओगी ,
मैं जैसा हूँ वही रहूँगा ,
तुम मुझको न समझ पाओगी |


आशा

02 अप्रैल, 2010

धर्म की आड़ में

तेरा क्यों सम्मान करें ,
जो बार-बार सबने चाहा ,
तेरा धरम से क्या नाता ,
तू तो केवल चेक भुनाता ,
धर्म गुरू लोगों ने कहा ,
पर तू ना निकला सन्यासी ,
अरे धर्म का नाम डुबा,
कितने ढोंग रचाये तूने ,
जो चाहा जितना चाहा ,
शिष्यों से पाया तूने ,
मन भूखा तेरा तन भूखा ,
अरे मूर्ख अत्याचारी,
तेरे जैसे कई लोगों ने ,
धर्म की नींव हिला डाली ,
कई बार धर्म की आड़ लिए ,
लोगों को बर्बाद किया ,
जिनको माँ और बहन कहा ,
उनको ही गुमराह किया ,
किसी समस्या में फँस कर ,
मन का चैन खो जाने पर ,
आत्मशांति की चाहत में ,
यदि तेरी कोई शरण आया ,
शरणागत को खूब लुभा ,
कमजोर क्षणों का लाभ उठाया ,
आस्था का जाल बिछा,
अंधविश्वासी उसे बनाया ,
एक बालिका मैंने देखी ,
जिसने माँ की गलती झेली,
बाबा के चक्कर में फँस कर ,
वह मुग्धा बन बैठी चेली ,
पढ़ा लिखा सब धूल हो गया ,
खुद से ही खुद को बिसराया ,
बाबा ही शान्ति देते हैं ,
हर क्षण उसके संग रहते हैं ,
नहीं असहाय लाचार रहे ,
मन में ऐसा भाव जगाया ,
जो कुछ भी वह करती है ,
या बात किसी से करती है ,
बाबा सारी बातें उसकी ,
पूरी-पूरी सुन सकते हैं ,
उसको शक्ती देते हैं ,
मन में यह भ्रम रखती है ,
ऐसे ही कुछ बाबाओं ने,
धर्म ग्रंथों से नाता जोड़ा ,
अच्छी भाषा लटके झटके ,
व चमत्कार सबसे हटके ,
लोगों से नाता जोड़ा ,
ली धर्म की आड़ ,
अपने रंग में उन्हें डुबोया ,
जब कोई बुद्धिजीवी आया ,
सारी पोल पकड़ पाया ,
जैसे ही मुख से हटा मुखौटा ,
असली रूप नजर आया ,
तू बाबा है या व्यभिचारी ,
या है कोई संसारी ,
तेरी दरिंदगी देख-देख,
नफरत दिल में पलती है ,
आस्था जन्म नहीं लेती ,
मन में अवसाद ही भरती है|


आशा

31 मार्च, 2010

जीवन नैया

जीवन जीना जब भी चाहा
खुशियों से रहा ना कोई नाता
कष्टों ने परचम फहराया
हर क्षण खुद को घुटता पाया |
जीना सरल नहीं होता
कुछ भी सहल नहीं होता
कितनी भी कोशिश कर लो
सब कुछ प्राप्त नहीं होता |
केवल सुंदर-सुंदर सपने
सपनों में सब लगते अपने
ठोस धरातल पर जब आये
दूर हुए सब रहे ना अपने |
मन में यदि कुछ इच्छा है
हर क्षण एक परीक्षा है
जब कृतसंकल्प वह हो जाये
सीधा लक्ष्य पर जाये
पत्थर को भी पिघलाये |
कामचोर असफल रहता है
मेहनतकश फल पाता है
कठिन परीक्षा होती उसकी
वह नैया पार लगाता है |
पर यह भी उतना ही सच है
जब कोई विपदा आती है
वह निर्बल को दहलाती है
सबल विचलित नहीं होता
कुछ भी हो धैर्य नहीं खोता
जीवन  की कठिन पहेली को
वह धीर वीर सुलझाता है 
जो भँवर जाल से बच निकले वही शूर वीर कहलाता है |

आशा

27 मार्च, 2010

अतिथि आज

कमर तोड़ मँहगाई है ,
संताप बढ़ाने आई है ,
बहुत मुसीबत लाई है ,
शक्कर का भाव बहुत अधिक है ,
दालों की हालत बहुत बुरी है ,
दूध फलों की कीमत देखो ,
सब और उदासी छाई है ,
ऐसे में जब अतिथि आये ,
बिना बात का कर्ज बढ़ाये ,
सारा बजट बिगाड़ कर जाये ,
वह तो माँगे शक्करपारे ,
यदि हलुआ भी हो साथ ,
खाये ले ले कर चटकारे ,
क्या नाश्ता रोज बनाऊँ,
खाने में क्या परिवर्तन लाऊँ ,
चिंता में नींद नहीं आती ,
रात यूँ ही गुजर जाती ,
पहले भी अतिथि आते थे ,
मन भर प्यार लुटाते थे ,
जब घर को वापिस जाते थे ,
माथे पर शल न आते थे ,
चमक दमक का दौर नहीं था
सत्कार सभी का मन से था ,
जीवन सफल समझते थे ,
जब घर में किसी को पाते थे ,
अब चिंता मुझे सताती है ,
बार-बार मुझे खाती है ,
किसी अतिथि के आने पर
यदि सत्कार न कर पाई ,
या कोई कमी रही बाकी ,
जग हँसाई हो जायेगी ,
बहुत मुसीबत आयेगी ,
पहले से यदि पता होता ,
थोड़ा उधार लिया होता ,
भार मुझे तब ना लगता ,
मन से सत्कार किया होता ,
कैसे सबसे नाता जोडूँ ,
इधर उधर कैसे दौडूँ ,
दो दिन की खातिर दारी में ,
पूरे माह तंगी झेलूँ ,
कोई ना मुझे समझ पाया ,
केवल कंजूस ही ठहराया ,
हे अतिथि तुम कब जाओगे ,
मन की खुशियां लौटाओगे ,
कष्ट मुझी को सहना है ,
मँहगाई में रहना है|
अधिक यदि तुम टिक जाओगे ,
पत्र पुष्प से भी जाओगे |


आशा

ऋण

आज बाजार में जब पहुँचीं,
कुछ भाव किये कुछ लेना चाहा,
गाड़ी की चाहत ने मुझको ,
एक शो रूम तक पहुँचाया ,
कमर तोड़ महँगाई ने ,
जब कर दीं सारी पार हदें ,
अपनी पहुँच से दूर बहुत ,
कीमत देख सर चकराया ,
होकर उदास घर लौट चली ,
मिनी मिली मुझे रस्ते में ,
उसने मेरी व्यथा सुनी,
पहले तो वह खूब हँसी ,
फिर सोच समझ कर बोल पड़ी ,
क्यों व्यर्थ ही चिंता करती हो ,
क्या कोई खाता नहीं बैंक में ,
जिसको अपना कहती हो |
मैंने पढ़ा सुबह पेपर में ,
ऋण को पाना बहुत सरल है ,
यदि प्रबल इच्छा हो मन में |
तुम भी ऋण पा सकती हो ,
फिर जो चाहो ले सकती हो |
मैंने मन मजबूत बनाया ,
बैंक पहुँच कर चैन आया ,
मैनेजर से हुई बात जब
उसने सहज परामर्श दिया |
बैंक सभी ऋण देता है ,
पर कई दस्तावेज भी लेता है ,
पूरी प्रक्रिया हो जाने पर ही ,
ऋण की स्वीकृति देता है |
ऋण चुक जाए तो अच्छा है ,
ना चुक पाए तो समस्या है ,
समस्या का समाधान हो सकता है ,
यदि मन में संकल्प और इच्छा है |
ऋण चुकाना कठिन नहीं होता ,
यदि किश्तों में चुका सकें उसको ,
थोड़ा ब्याज तो लगता है ,
पर जल्दी कर्ज उतरता है |
जब नई गाड़ी होगी ,
उसकी सवारी प्यारी होगी ,
जीने का मज़ा आ जायेगा ,
ऋण तो चुकता हो जायेगा |
पहले मन डावांडोल हुआ ,
क्या ऋण लेना उचित होगा ,
वह पागल ना जान पाया |
यह भी इतना ही सच है ,
जब तक ऋण चुकता ना हो ,
मन अशांत ही रहता है |
पर गाड़ी की याद मुझे ,
बारम्बार सताने लगी ,
ऋण की चिंता कौन करे ,
गाड़ी नजरों में छाने लगी |
सुबह हुई सबसे पहले ,
सारे कागज़ तैयार किये ,
जल्दी से फिर पहुँच बैंक में ,
सारे करार स्वीकार किये |
जैसे ही लोन मिला मुझको ,
जल्दी से पहुँची शो रूम ,
गाड़ी की बुकिंग कराई ,
यथा शीघ्र डिलीवरी चाही |
आज शाम तक मिल जायेगी ,
ऐसा आश्वासन पाया |
जब रंग की बात चली ,
सिल्वर सिल्की बतलाया |
जैसे ही घर गाड़ी आयी ,
कर्ज विचारों पर छाया ,
कैसे चुक पायेगा पैसा,
बार-बार विचार आया ,|
जब तक किश्त नहीं चुकती ,
गाड़ी अपनी नहीं लगती |
बच्चों ने समझाना चाहा ,
माँ व्यर्थ ही डरती हो ,
जो चमक दमक तुम्हें दिखती है ,
सब ऋण से ही तो मिलती है |
शायद ही कोई ऐसा घर हो ,
जहाँ ऋणी कोई ना हो |
धन चाहे कैसा भी आये ,
बस पैसा मिलता जाये ,
काम कोई ना रुक पाए ,
बस यही आज का फंडा है |


आशा