19 अप्रैल, 2010

वर्तमान

कालचक्र चलता जाता
ना रुका कभी ना रोका जाता
बीता कल लौट नही पाता
मन अशांत करता जाता
फिर क्यूँ सोचूँ जो बीत गया
जो ना लौटा और रीत गया
अतीत पीछे छूट गया
जो बीत गया सो बीत गया
जीवन की कटुता से सीखा
बीता कल सहज नहीं होता
यदि अतीत में खोते जाओ
वर्तमान में जी ना पाओ
उस कल में ना जीना चाहूँ
जिसका कोई पता नहीं
केवल कोरी कल्पना में
क्यों मैं अपना समय गवाऊँ
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
अगला पल किसने देखा है
फिर भविष्य की कल्पना में
क्यूँ भावुक हो बहती जाऊँ
उस कल की क्या बात करूँ
जो अनिश्चित है अनजाना है
ऐसे आगत की चिंता में 
क्यूँ मैं अपना आज गवाऊँ
मैं वर्तमान में जीती हूँ
क्षण-क्षण का मोल समझती हूँ
हर पल का पूरा हिसाब रखा
मैं सही आकलन करती हूँ
समय का काँटा घूम रहा
वह तेजी से भाग रहा
अग्र भाग के केशों से
समय को पकड़े रहती हूँ
मैं जब दिल को बहलाना चाहूँ
इधर उधर साधन अनेक
उनमें से कुछ को चुन कर
अपना जीवन जीना चाहूँ
जो बीत गया वो ना लौटा
आने वाला कल किसने देखा
सब के सुख दुःख अपना कर
मैं यथार्थ में रहती हूँ
अनजाने लोग अनजान शहर
उनमें अपनापन पाकर
हर पल को खुशियों से भर कर
मैं वर्तमान में जीती हूँ |
आशा

16 अप्रैल, 2010

प्रकृति से

हरी भरी बगिया में देखा ,
रंग बिरंगे फूल खिले ,
हरियाली छाई पेड़ों पर ,
फले फूले और खूब सजे ,
तरह-तरह के पक्षी आये ,
उन पेड़ों पर नीड़ बनाए ,
पर इक छोटी सी चिड़िया ,
आकृष्ट करे पंख फैलाये,
उसकी मीठी सी स्वर लहरी ,
जब भी कानों में पड़ जाये ,
एक अजीब सा सम्मोहन ,
उस ओर बरबस खींच लाये,
चूंचूं चूंचूं चींचीं चींचीं ,
चूंचूं चींचीं करती चिड़िया ,
इस डाल से उस डाल तक ,
पंख फैला कर उड़ती चिड़िया,
दाना पानी की तलाश में ,
बहुत दूर तक जाती चिड़िया ,
फिर पानी की तलाश में ,
नल कूप तक आती चिड़िया ,
जल स्त्रोत तक आना उसका ,
चोंच लगा नल की टोंटी से ,
बूँद-बूँद जल पीना उसका ,
मुझको अच्छा लगता है ,
घंटों बैठी उसे निहारूँ ,
ऐसा मुझको लगता है ,
मुझको आकर्षित करता है |
तिनका-तिनका चुन कर उसने ,
छोटा सा अपना नीड़ बनाया ,
उसी नीड़ में सुख से रहती ,
अपने चूजों को दाना देती ,
उसका समर्पण देख- देख कर ,
अपना घर याद आने लगता है ,
बच्चों की चिंता होती है ,
मन अस्थिर होने लगता है ,
कैसे घर समय पर पहुँचूँ ,
चिंता मुझको होती है ,
जब घर पहुँच जाती हूँ ,
तभी शांत मन हो पाता है ,
चिड़िया की मेहनत और समर्पण ,
बार-बार याद आते हैं ,
उसको देख बिताए वे पल ,
यादगार क्षण बन जाते हैं |


आशा

12 अप्रैल, 2010

नव चेतना

आज सुबह जब पेपर खोला ,
मुख्य पृष्ठ पर मैंने देखा ,
हाई अलर्ट कई राज्यों में ,
नक्सलियों ने हमला बोला ,
कितनों की जान गई आखिर ,
कितनों को पीछे रोता छोड़ा,
यह कैसी विडम्बना है,
या समाज की अवहेलना है ,
या राजनीति की घटिया चालों का,
एक छोटा सा नमूना है ,
नेताओं से लड़ने की ताकत ,
कोई भी न जुटा पाया ,
जो हिम्मत कर आगे आया ,
उसे जड़ से मिटता पाया ,
जिसने भी आवाज उठाई ,
या हथियार उठा कुछ विरोध किया ,
उसको माओवादी बोला ,
या नक्सली करार दिया ,
उसे समूल नष्ट करने का ,
बारम्बार विचार किया ,
वे आदिवासी भोले भाले ,
खुद में मस्त रहने वाले ,
उनके जजबातों से खेला ,
अपनी-अपनी रोटी सेकी ,
उनको केवल इस्तेमाल किया ,
उनकी आखिर चाहत क्या है,
कोई कभी न समझ पाया ,
केवल सतही बातों से ,
उनको अस्त्र बनाता आया ,
वे हैं कितने बेबस कितने लाचार ,
कोई नहीं जान पाया ,
राजनीति तो अंधी है ,
उसने केवल मतलब देखा ,
मतलब को पूरा करने को ,
आदिवासी को मरते देखा ,
कहने को तो सब कहते हैं ,
हर समस्या का हल होता है ,
पर इतनी लम्बी अवधि में ,
कोई भी हल न निकल पाया ,
शोषण कर्ता के खेलों का ,
कभी तो अंत होना है ,
यह है कैसा बोझ ,
जिसे समाज को ढोना है ,
क्या समाज सम्वेदनशील नहीं है ,
या रीढ़ की हड्डी ही नहीं है ,
कब जागरण आएगा ,
इन सब से मुक्ति दिलायेगा ,
जैसे दिन में तपता सूरज ,
कइयों को झुलसाता है ,
त्राहि त्राहि वे करते हैं ,
मन मसोस रह जाते हैं,
पर शाम होते ही सूरज ,
थक कर अस्त हो जाता है ,
आम आदमी उसकी गिरफ्त से ,
कुछ तो राहत पाता है |


आशा

11 अप्रैल, 2010

चाँद, मैं और मेरी बेटी

तारों भरी रातों में ,
अक्सर भर जज़बातों में ,
तारों से बातें होती हैं ,
अपनों की याद सँजोती हैं ,
तारों की चमक और आकाश गंगा ,
रातों की संबल होती है,
तारों को जी भर कर देखा ,
और अपनों को याद किया ,
अपना तारा खोजा मैंने ,
उस पर रहने का विचार किया ,
झिलमिल तारों की बारात छोड़,
जैसे ही पूर्ण चंद्र आया ,
चाँदनी का आकर्षण ,
मुझे बाहर खींच लाया ,
ठुमक-ठुमक धीमे-धीमे ,
चुपके से आना उसका ,
कभी दीखती बहुत चपल ,
फिर गुमसुम हो जाना उसका ,
धीमी घुँघरू की छनछन,
मन में तरंग जगाने लगी ,
मीठे गीतों की स्वर लहरी ,
बन तरंग छाने लगी,
चाँदनी की शीतलता का ,
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ ,
जब चाँद को देखा मैंने ,
छिपे प्यार का इज़हार हुआ ,
इतने में इक तारा टूटा ,
सपना मेरी चाहत का ,
इसी समय मन में फूटा ,
जल्दी से नयन मूँदे अपने ,
टूटे तारे से मैंने ,
मन की मुराद को माँग लिया ,
जब मैं बहुत छोटी सी थी ,
मेरी माँ अक्सर कहती थी ,
चन्दा में एक बुढ़िया रहती है ,
वह चरखे पर बैठ सदा ,
सूत कातती रहती है ,
मैंने बहुत ध्यान से देखा ,
वह बुढ़िया नज़र नहीं आई ,
केवल काले-काले धब्बे ,
और ना कुछ देख पाई,
जब चाहत मेरी रंग लाई ,
पूर्ण चंद्र सी बेटी ,
मेरे आँगन में उतर आई ,
दमन खुशियों से भर लाई ,
वह अक्सर चाँद देखती है ,
उसको पाने को कहती है ,
काफी सोच विचार किया ,
फिर से याद पुरानी आई ,
आँगन में ले आई थाली ,
उस में भर पानी मैंने ,
थाली में चाँद उसे दिखाया ,
उसे खुशी से झूमता पाया ,
फिर चाँद पकड़ने की कोशिश में ,
नन्हा हाथ थाली तक आया ,
जैसे ही हाथ थाली तक पहुँचा ,
चंदा को दूर खुद से पाया ,
वह प्रश्न अनेकों करती है ,
कई-कई सोच बदलती है ,
चंदा क्यूँ पास नहीं आता ,
ऐसे क्यूँ उसको तरसाता ,
वह तो उससे मिलना चाहे ,
इतनी सी बात ना समझ पाता ,
चरखे वाली नानी शायद ,
उसको नहीं आने देतीं ,
या है कोई अन्य समस्या ,
उसको नहीं खेलने देती ,
चंदा तो सदा दूर ही होगा ,
कभी पास ना आयेगा ,
यह कैसे उसको समझाऊँ ,
उसका मन कैसे बहलाऊँ |


आशा

07 अप्रैल, 2010

सौंदर्य बोध

गीत हजारों बार सुने
चर्चे भी कई बार किये
सच्ची सुंदरता है क्या
इस तक न कभी पहुँच पाये
तन की सुंदरता तो देखी
मन की सीरत न परख पाये
ऐसा शायद विरला ही होगा
जो तन से मन से सुंदर हो
सुंदर सुंदर ही रहता है
मन से हो या तन से हो
यदि कमी कोई ना हो
फिर शिव वह क्यों ना कहलाये
यह तो दृष्टिकोण है अपना
किसको सुंदर कहना चाहे
जिसको लोग कुरूप कहें
वह भी किसी मन को भाये
आखिर सुंदरता है क्या
परिभाषा सुनी हजारों बार
जो प्रथम बार मन को भाये
सबसे सुंदर कहलाये
नहीं जरूरी सब सुंदर बोलें
विशिष्ट अदा को सब तोलें
जिसने चाहा और अपनाया
उसने क्या पैमाना बनाया
तन की सुंदरता देखी
मन को नहीं माप पाया
जिसने जिस को जैसे देखा
अपने मापदण्ड से परखा
उसको विरला ही पाया
अन्यों से हट के पाया
जब आँखें बंद की अपनी
कैद उसे आँखों में पाया
तन तो सुंदर दिखता सबको
मन को कोई न समझ पाया
ऐसा कोई नाप नहीं
जो सच्चा सौंदर्य परख पाता
सबने अपने-अपने ढंग से
सुंदरता को जाँचा परखा
ख़ूबसूरती होती है क्या
कोई भी नहीं जान पाया
यह तो अपनी इच्छा है
किसको सुंदर कहना चाहे
वही मापदण्ड अपनाये
जो उसके मन को भाये |


आशा

04 अप्रैल, 2010

मानसिकता

सब कुछ तुम सहती जाओ ,
उपालंभ तुम्ही को दूँगा ,
धरती सी तुम बनती जाओ ,
साधुवाद न तुमको दूँगा ,
मैं सारे दिन व्यस्त सा रहता हूँ ,
तुम कुछ ना करो मैं कहता हूँ ,
पर यदि कोई त्रुटि हो जाये ,
इसे नहीं मैं सहता हूँ ,
तुममें मुझ में अंतर कितना ,
मैं यह भी न भुला पाया ,
जब भी कोई बात चली ,
खुद को ही महत्व देता आया ,
अनुमति यदि तुमने ना माँगी ,
यह बात सदा दुख देती है ,
यदि मन की बात न कह पाऊँ ,
वह मन में घुटती रहती है ,
अनजान व्यथा मन में मेरे ,
ऐसे घुस कर बैठी है ,
पीड़ा जब हद से गुजरे ,
मन की भड़ास निकलती है ,
अंतर यह सदियों से है ,
इसे पाटना मुश्किल है ,
हर बात तुम्हीं से कहता हूँ ,
तुमसे सलाह भी लेता हूँ ,
पर जब कोई अवसर आए ,
सब श्रेय खुदी को देता हूं ,
मेरी इस अवस्था को ,
शायद तुम ना समझ पाओगी ,
हर बात यदि तुम दोहराओगी ,
मुझको रूखा ही पाओगी ,
दूसरों से यदि तुलना की तुमने ,
मुझसे दूर होती जाओगी ,
लाख कोशिशें करलो चाहे ,
मुझे तुम ना बदल पाओगी ,
मैं जैसा हूँ वही रहूँगा ,
तुम मुझको न समझ पाओगी |


आशा

02 अप्रैल, 2010

धर्म की आड़ में

तेरा क्यों सम्मान करें ,
जो बार-बार सबने चाहा ,
तेरा धरम से क्या नाता ,
तू तो केवल चेक भुनाता ,
धर्म गुरू लोगों ने कहा ,
पर तू ना निकला सन्यासी ,
अरे धर्म का नाम डुबा,
कितने ढोंग रचाये तूने ,
जो चाहा जितना चाहा ,
शिष्यों से पाया तूने ,
मन भूखा तेरा तन भूखा ,
अरे मूर्ख अत्याचारी,
तेरे जैसे कई लोगों ने ,
धर्म की नींव हिला डाली ,
कई बार धर्म की आड़ लिए ,
लोगों को बर्बाद किया ,
जिनको माँ और बहन कहा ,
उनको ही गुमराह किया ,
किसी समस्या में फँस कर ,
मन का चैन खो जाने पर ,
आत्मशांति की चाहत में ,
यदि तेरी कोई शरण आया ,
शरणागत को खूब लुभा ,
कमजोर क्षणों का लाभ उठाया ,
आस्था का जाल बिछा,
अंधविश्वासी उसे बनाया ,
एक बालिका मैंने देखी ,
जिसने माँ की गलती झेली,
बाबा के चक्कर में फँस कर ,
वह मुग्धा बन बैठी चेली ,
पढ़ा लिखा सब धूल हो गया ,
खुद से ही खुद को बिसराया ,
बाबा ही शान्ति देते हैं ,
हर क्षण उसके संग रहते हैं ,
नहीं असहाय लाचार रहे ,
मन में ऐसा भाव जगाया ,
जो कुछ भी वह करती है ,
या बात किसी से करती है ,
बाबा सारी बातें उसकी ,
पूरी-पूरी सुन सकते हैं ,
उसको शक्ती देते हैं ,
मन में यह भ्रम रखती है ,
ऐसे ही कुछ बाबाओं ने,
धर्म ग्रंथों से नाता जोड़ा ,
अच्छी भाषा लटके झटके ,
व चमत्कार सबसे हटके ,
लोगों से नाता जोड़ा ,
ली धर्म की आड़ ,
अपने रंग में उन्हें डुबोया ,
जब कोई बुद्धिजीवी आया ,
सारी पोल पकड़ पाया ,
जैसे ही मुख से हटा मुखौटा ,
असली रूप नजर आया ,
तू बाबा है या व्यभिचारी ,
या है कोई संसारी ,
तेरी दरिंदगी देख-देख,
नफरत दिल में पलती है ,
आस्था जन्म नहीं लेती ,
मन में अवसाद ही भरती है|


आशा