16 जून, 2010

एक नन्हा सा दिया


दीपक ने पूछा पतंगे से
मुझ में ऐसा क्या देखा तुमने
जो मुझ पर मरते मिटते हो
जाने कहाँ छुपे रहते हो
पर पा कर सान्निध्य मेरा
तुम आत्महत्या क्यूँ करते हो
भागीदार पाप का
या साक्षी आत्मदाह का
मुझे बनाते जाते हो
जब भी मेरे पास आते हो |
जब तक तेल और बाती है
मुझको तो जलना होगा
अंधकार हरना होगा |
यह ना समझो
मैं बहुत सशक्त हूँ
मैं हूँ एक नन्हा सा दिया
नाज़ुक है ज्योति मेरी
एक हवा के झोंके से
मेरा अस्तित्व मिट जाता है ,
एक धुँआ सा उठता है ,
सब समाप्त हो जाता है ,
आग ज्वालामुखी में भी धधकती है ,
रोशनी भी होती है ,
दूर- दूर तक दिखती है ,
बहुतों को नष्ट कर जाती है ,
कितनों को झुलसाती है ,
लावा जो उससे निकलता है
उसका हृदय पिघलाता है
और ताप हर लेता है
पर तपिश उसकी
बहुत समय तक रहती है
विनाश बहुत सा करती है
वह शांत तो हो जाता है
पर स्वाभाव नहीं बदल पाता
जब चाहे उग्र हो जाता ,
ना तो मैं ज्वालामुखी हूँ
ना ही मेरी गर्मी उस जैसी
मैं तुमको कैसे समझाऊँ|
मैं तो एक छोटा सा दिया हूँ
अहित किसी का ना करना चाहूँ
पर हित के लिए जलता हूँ
तम हरने का प्रयत्न करता हूँ
शायद यही नियति है मेरी
इसी लिए मैं जलता हूँ |


आशा

15 जून, 2010

आप जब भी मेरे सामने आती हैं

आप जब भी मेरे सामने आती हैं ,
अपनी पलकों को झुका लेती हैं ,
शायद कुछ कहना भी चाहती हैं ,
मन ही मन कुछ दोहराती हैं ,
मैं समझ के भी अनजान बना रहता हूँ ,
कभी निगाहें भी चुरा लेता हूँ ,
चुप्पी साध लेता हूँ ,
कहना चाहता हूँ बहुत कुछ ,
बात मुँह तक आ कर रुक जाती है ,
फिर सोचता हूँ कोई शेर लिखूँ ,
जिसे पढ़ कर आप ,
मेरे दिल को जान सकें ,
दिल की गहराई नाप सकें ,
कुछ आप भी कोशिश करें ,
कुछ पहल मैं भी करूँ ,
जिससे मन की बातों को ,
इक दूजे से कह पायें ,
मन को अभिव्यक्ति दे पायें |


आशा

14 जून, 2010

मान पाने का हक तो सबका बनता है

तुम मेरी हो तुम्हारा अधिकार है मुझ पर ,
लेकिन अपनों को कैसे भूल जाऊँ ,
जिनकी ममता है मुझ पर ,
उन सब से कैसे दूर जाऊँ ,
मैं उनका प्यार भुला न सकूँगा ,
अपनों से दूर रह न सकूँगा ,
क्यों तुम समझ नहीं पातीं ,
क्या माँ की याद नहीं आती ,
जब भी उनसे मिलना चाहूँ ,
कोई बात ऐसी कह देती हो ,
दूरी मन में पैदा करती हो ,
यह तुम्हारी कैसी फितरत है ,
नफरत से भरी रहती हो ,
वो तुम्हारी सास हुई तो क्या ,
वह मेरी भी तो माँ हैं ,
तुमको प्यार जितना अपनों से ,
मेरा भी तो हक है उतना ,
में कैसे भूल जाऊँ माँ को ,
जिसने मुझ को जन्म दिया ,
उँगली पकड़ी, चलना सिखाया ,
पढ़ाया लिखाया, लायक बनाया ,
सात फेरों में तुम से बाँधा ,
तुम्हारा आदर सत्कार किया ,
मान पाने का तो हक उनका बनता है ,
फिर तुमको यह सब क्यूँ खलता है ,
छोटी सी प्यारी सी मुनिया ,
मेरी बहुत दुलारी बहना ,
उसने ऐसा क्या कर डाला ,
तुमने उसको सम्मान न दिया ,
दो बोल प्यार के बोल न सकीं ,
उससे भी नाता जोड़ न सकीं ,
मैं उससे मिल नहीं पाया ,
मैंने क्या खोया तुम समझ न सकीं
केवल अशांति का स्त्रोत बनी
अब तुम्हारी न चलने दूँगा ,
जो सही मुझको लगता है ,
वैसा ही अब मैं करूँगा ,
जिन सबसे दूर किया तुमने ,
उन सब से प्यार बाँटना होगा ,
हिलमिल साथ रहना होगा ,
सभी का अधिकार है मुझ पर ,
केवल तुम्हारा ही अधिकार न होगा ,
तभी कहीं घर घर होगा ,
मेरा सर्वस्व तुम्हारा होगा |


आशा

एक मनचला

एक और आँखों देखा सच तथा उससे बुना शब्द जाल !
शायद आपको पसंद आए :-

जब तुम उसे इशारे करते हो ,
शायद कुछ कहना चाहते हो ,
कहीं उसकी सूरत पर तो नहीं जाते ,
वह इतनी सुंदर भी नहीं ,
जो उसे देख मुस्कुराते हो ,
उसे किस निगाह से देखते हो ,
यह तो खुद ही जानते हो ,
पर जब उसकी निगाह होती तुम पर ,
अपने बालों को झटके देते हो ,
किसी फिल्मी हीरो की तरह ,
अपना हर अंदाज बदलते हो ,
कभी रंग बिरंगे कपड़ों से ,
और तरह-तरह के चश्मों से ,
उसको आकर्षित करते हो ,
गली के मोड़ पर,
घंटों खड़े रह कर ,
बाइक का सहारा ले कर ,
कई गीत गुनगुनाते हो ,
या गुटका खाते हो ,
तुम पर सारी दुनिया हँसती है ,
तुम्हारी यह बेखुदी देख ,
मुझको भी हँसी आ जाती है |


आशा

13 जून, 2010

कलम

मैं कलम हूँ ,
गति मेरी है अविराम ,
तुम मुझे न जान पाओगे ,
जहाँ कहीं भी तुम होगे ,
साथ अपने मुझे पाओगे ,
जीवन में जितने व्यस्त हुए ,
तब भी न मुझसे दूर हुए ,
मेरे बिना तुम अधूरे हो ,
स्वप्न कैसे साकार कर पाओगे |


आशा

12 जून, 2010

तुम्हारे वादे और मैं

तुम्हारे वादों को ,
अपनी यादों में सजाया मैंने ,
तुम तो शायद भूल गए ,
पर मैं न भूली उनको ,
तुम्हारे आने का
ख्याल जब भी आया ,
ठण्ड भरी रात में
अलाव जलाया मैंने ,
उसकी मंद रोशनी में ,
हल्की-हल्की गर्मी में ,
तुम्हारे होने का ,
अहसास जगाया मन में ,
हर वादा तुम्हारा ,
मुझ को सच्चा लगता है ,
पर शक भी कभी ,
मन के भावों को हवा देता है ,
तुम न आए ,
बहुत रुलाया मुझको तुमने ,
ढेरों वादों का बोझ उठाया मैंने ,
ऊंची नीची पगडंडी पर ,
कब तक नंगे पैर चलूँगी ,
शूल मेरे पैरों में चुभेंगे ,
हृदय पटल छलनी कर देंगे ,
पर फिर से यादें तेरे वादों की,
मन के घाव भरती जायेंगी ,
मन का शक हरती जायेंगी ,
कभी-कभी मन में आता है ,
मैं तुम्हें झूठा समझूँ ,
या सनम बेवफा कहूँ ,
पर फिर मन यह कहता है ,
शायद तुम व्यस्त अधिक हो ,
छुट्टी नहीं मिल पाती है ,
या कोई और मजबूरी है ,
वहीं रहना जरूरी है ,
मुझको तो ऐसा लगता है ,
इसीलिए यह दूरी है |


आशा

10 जून, 2010

दायरा सोच का


दायरा सोच का कितना विस्तृत 
कितना सीमित 
कोई जान नहीं पाता
उसे पहचान नहीं पाता
सागर सा विस्तार उसका
उठती तरंगों सा उछाल उसका
गहराई भी समुंदर जैसी
अनमोल भावों का संग्रह
सागर की अनमोल निधि सा |
सोच सीमित नहीं होता
उसका कोई दायरा नहीं होता
होता वह हृदय से प्रस्फुटित
मौलिक और अनंत होता
पृथ्वी और आकाश जहाँ मिलते 
क्षितिज वहीं होता है
सोच क्षितिज सा होता है |
कई सोचों का मेल
बहुत दूर ले जाता है
सीमांकित नहीं किया जाता |
सोच सोच होता है
 कोई नियंत्रण नहीं होता
स्वप्न भी तो सोच का परिणाम हैं
वे कभी सही भी होते हैं
कभी कल्पना से भरे हुए
सपनों से भी होते हैं
कुछ सोच ऐसे भी हैं
दिल के दरिया में डूबते उतराते
कभी गहरे पैठ जाते
वे जब भी बाहर आ जाते
किसी रचना में
रचा बसा खुद को पाते
और अमर वे हो जाते |


आशा