25 जुलाई, 2010

ओस की एक बूंद


अरुणिमा से भरे नीले आकाश तले
हर श्रृंगार के पत्ते पर
नाचती ,थिरकती
एक चंचल चपला सी
या नन्हीं कलिका के सम्पुट सी
दिखती ओस की एक बूंद |
कभी लगती
एक महनत कश इंसान के
श्रम कण सी ,
कभी मां के माथे पर आए स्वेद सी
या किसी सुकुमारी के
मुंह पर ठहरे जल कण सी
सच्चाई हर कण में उसके
शुद्धता संचित पूंजी उसकी |
आदित्य की प्रथम किरण
जैसे ही पड़ती उस पर
लजा कर झुका लेती आँखें
छुईमुई सी सकुचा कर
जाने कहां छुप जाती है ,
वह नन्ही सी
ओस की एक बूंद
पत्ते पर भी,
अलग थलग सी रहती
पर अस्तित्व अपना
मिटने भी नहीं देती
है छोटी सी उम्र उसकी
पर जिंदगी अनमोल उसकी |
आशा

,

24 जुलाई, 2010

ममता

 कभी सोचा न था
इतनी ममता की हकदार हूं मैं
पार्क में एक अबोध बालक
मेरे बहुत पास आया
पहले मेरी साड़ी पकड़ी
फिर धीरे से उंगली थामी
मुझे ध्यान से देख रहा था
अपनी ओर खींच रहा था
मुझमे भी उत्सुकता जागी
पकड़ा हाथ साथ चल दी
वह डगमग डगमग चलता था
पर जैसे ही भय लगता 
पकड़ उंगली की
और मजबूत करता था
मैं अनजाने मित्र के साथ
खिचती चली गई
गंतव्य तक जब पहुंची
 कुत्ते के बच्चे खेल रहे थे
जैसे ही पिल्लों को देखा
ताली बजाई ,खुशी से उछला
जब पिल्लै ने पूँछ हिलाई
 औरअधिक  पास आया
भयभीत हुआ ,गोद में आया
पिल्लै भी कुछ कम न थे
पैरों पर पंजा मार रहे थे
वे भी खेलना चाहते थे
उसे छूना चाहते थे
जब मम्मी की आवाज सुनी
उतर गोद से मुस्काया
 जाने को बेचैन हुआ
मम्मी की उंगली थामी
और साथ चल दिया
मैं  अकेली खाली बेंच पर बैठी थी
सामने बृक्ष पर बैठी चिड़िया
चूजों को दाना खिला रही थी
इतने में एक कागा आया
आसपास उसके मंडराया
चिड़िया तेजी से उड़ उड़ कर
 करने लगी उसे दूर
पर चिंता एक ही थी
कोई नुक्सान न हो बच्चों को
यह कैसा खेल प्रकृति का
कोई अंत नहीं ममता का |
आशा

22 जुलाई, 2010

तमाशबीन

जन सैलाब उमढ़ता 
जाने किसे देखने को
लोगों को एकत्रित देख
राह चलते रुक जाते लोग 
कुछ और लोग जुड़ जाते है
अक्सर वे यह भी न जानते
भीड़ का कारण क्या है
फिर भी बुत से बने हुए वे
वहीं खड़े रह जाते हैं
फिर सड़क छाप जमावड़े का
पूरा मजा उठाते लोग 
जैसे ही पुलिस देखते हैं
तितर बितर भी हो जाते हैं
यदि कोई दुर्घटना हो
या दुःख का हो कोई अवसर
कुछ ही लोग मदद करते हैं
बाकी तमाशबीन होते हैं
अपने घर चल देते हैं
हर किस्से को बढा चढा कर
जब चटकारे ले कर सुनाते 
वास्तविकता क्या थी
वे यह भी भूल जाते हैं |
आशा

20 जुलाई, 2010

सफर जिंदगी का

जिंदगी बहुत बड़ी है ,
उसमे हताशा कैसी ,
प्यार में सफलता न मिली ,
तो निराशा कैसी ,
मन तो सम्हल ही जाएगा ,
आसान नहीं होता ,
प्यार में मिली असफलता से ,
दो चार होना ,
मन में भर जाता है ,
उदासी और खालीपन ,
तनाव भी घर बनाता है ,
चहरे पर साफ नजर आता है ,
निराशा और अवसाद,
भी पीछे नहीं रहते ,
सब ओर से जकड़ लेते हैं ,
आत्मविश्वास की कमी ,
होती कारण इन सब का ,
पर उदासी जीवन के प्रति ,
समझदारी नहीं होती ,
अनगिनत कारण होते हैं ,
जीवन जीने के ,
जिन में छुपे होते हैं ,
कई संकेत भविष्य के ,
समय के संदूक में ,
कई अनमोल खजाने हैं ,
कभी न कभी मिल ही जाएंगे ,
बीती बातों में क्या रखा है ,
प्यार कोई गुनाह नहीं होता ,
एक रिश्ता यदि टूटा भी ,
आपस में ब्रेकअप हुआ भी ,
तो क्या अन्य सभी ,
समाप्त हो जाएंगे ,
दर्द यदि मिल कर बांटें,
कई लोग साथ खड़े नजर आएँगे ,
जिंदगी में रवानी है ,
है इतनी बड़ी कि ,
विशेषण लगाना ही गलत है ,
जीवन की किताब का,
हर पृष्ठ खुला नहीं होता ,
हर ब्यक्ति हमदर्द नहीं होता ,
आत्मविश्वास यदि कम न हो ,
बीते कल से जो सबक मिले ,
उन पर ध्यान दिया जाए ,
तब कई विकल्प मिल सकते हैं ,
प्यार किसी की जागीर नहीं ,
छोड़ निराशा जब आगे बढते हैं ,
कई रास्ते निकलते हैं ,
इसे ही जिंदगी का सफर कहते हैं |
आशा

19 जुलाई, 2010

यह मैं नहीं जानती

मैं नहीं जानती
क्यूं तुम्हें समझ नहीं पाती
तुम क्या हो क्या सोचते हो
क्या प्रतिक्रया देते हो
तुम्हारे विचारों की अभिव्यक्ति
उसमे होते परिवर्तन
सोचने को बाद्ध्य करते हैं
मन में चंचलता भरते हैं
फिर भी तुम्हें समझ नहीं पाती
बरसों साथ रहे फिर भी
मन में झाँक नहीं पाती
सदा प्रसन्न देख नहीं पाती
कभी नरम मक्खन जैसे
कभी मौम से पिघलते
फिर  अचानक पत्थर की तरह
बहुत सख्त हो जाते
कितनी नफरत भरी हुई है
उन् लोगों के लिए
जो कभी बूले से भी
तुम्हारे आड़े आए
जाने अनजाने ही सही
कभी कोई भूल हुई
क्षमा उसे न कर पाए
उसे अपना नहीं पाए
मन में छिपी चिंगारी को
तुम्हारे अपनों ने ही हवा दी
जब आग जलने लगी
सबने हाथ खूब सके
आग कब नफरत में बदली
यह भी तुम्हें पता नहीं
असली क्या और नकली क्या
इसकी भी परख नहीं
कुंठाओं ने  मन में घर किया
कभी उन्हें विसरा न सके
असंतुष्ट सदा रहे
सत्य जान नहीं पाए
कभी यह तो सोचा होता
क्या सभी बुरे होते हैं ?
अच्छा कोई नहीं होता
कुछ न कुछ कमी
तो सब में होती है
कोई यदि खराब भी है
उसमें कुछ तो अच्छाई होगी
क्यूँ बुराई याद करते हो
अपने को व्यथित करते हो
अनुभव सभी कटु नहीं होते
उनमें भी झरोखे होते हैं
यह मैं नहीं जानती
क्यूँ तुम्हें समझ नहीं पाती
तुम क्या हो, क्या सोचते हो
क्या प्रतिक्रिया करते हो
तुम्हारे विचारों की अभिब्यक्ति
उनमे होते परिवर्तन ,
सोचने को बाध्य करते है ,
मन में चंचलता भरते हैं ,
फिर भी तुम्हें समझ नहीं पाती
बरसों साथ रहे फिर भी
मन में झांक नहीं पाती
सदा प्रसन्न देख नहीं पाती
कभी नरम मक्खन जैसे
कभी मौम से पिघल जाते
फिर अचानक पत्थर की तरह
बहुत सख्त हो जाते
कितनी नफरत भरी हुई है
उन लोगों के लिए
जो कभी भूले से भी
तुम्हारे आड़े आए
जाने अनजाने ही 
यदि कोई भूल हुई
क्षमा उसे कर नहीं पाए
उसे अपना नहीं पाए
मन में छिपी चिन्गारी को
तूम्हारे अपनों ने ही हवा दी
जब आग जलने लगी
सब ने हाथ खूब सके
आग कब नफरत में बदली
यह भी तुम्हें पता नहीं
असली क्या है ,नकली क्या है
इसकी भी परख नहीं
कुंठाओं ने घर किया मन में
कभी उन्हें बिसरा न सके
असंतुष्ट सदा रहे
सत्य पहचान नहीं पाए
जिनसे मीठी यादों की
पुरवाई भी आती है
उसे यदि महसूस करो
तब मन हल्का हो सकता है
तुम उदास कभी न होगे
असन्तुष्ट भी नहीं रहोगे
जब बदलाव सोच में होगा
अच्छाई नजर आएगी
मन में उदासी नहीं रहेगी
जीवन में विरोधाभास न होगा |
आशा



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15 जुलाई, 2010

मेरी कलम की स्याही सूख गई है

मेरी कलम की स्याही सूख गई है ,
क्या यह कोई अजूबा है ?
नहीं यह एक तजुर्बा है ,
जब मन ना हो कुछ लिखने का ,
अपने विचार व्यक्त करने का ,
तब कोई तो बहाना चाहिये ,
मन में आए इस विराम को ,
किसी का तो उलाहना चाहिए ,
कलम के रुक जाने से ,
विचारों के पैमाने से ,
स्याही छलक नहीं पाती ,
अभिव्यक्ति हो नहीं पाती ,
जब कुछ विश्राम मिल जाता है ,
फिर से ख्यालों का भूचाल आता है ,
कलम को स्याही में डुबोने का .
जैसे ही ख्याल आता है ,
विचारों का सैलाब उमड़ता है .
गति अविराम हो जाती है .
कलम में गति आ जाती है ,
सारे दरवाजे खोल जाती है ,
कलम जिसके हाथ में होती है ,
वैसी ही हो जाती है ,
साहित्यकार रचना लिखता है ,
न्यायाधीश फैसला .
साहित्यकार सराहा जाता है ,
कलम का महत्व जानता है ,
पर एक कलम ऐसी भी है ,
फाँसी की सजा देने के बाद ,
जिसकी निब तोड़ दी जाती है ,
अनगिनत विचार मन में आते हैं ,
फिर से लिखने को प्रेरित करते हैं !

आशा

14 जुलाई, 2010

है जिंदगी यही

सुन्दर सी छोटी सी चिड़िया
घोंसले में दुबकी हुई चिड़िया
देख रही आते अंधड़ को
हवा के बवंडर को
कहीं घर तो उसका
न गिर जाएगा
आसरा तो न छिन जाएगा |
यही है इकलौती पूंजी उसकी
जिस में सारी दुनिया सिमटी
छोटे छोटे चूजे उसके
भय से कांप कांप जाते
उन्हें साथ साथ चिपका लेती
भय उनका भी कम करती |
पर अपने भय का क्या करे
उसके मन की कौन सुने
सहारे भाग्य के रहती है
जब अंधड से बच जाती है
अपने को सुरक्षित पाती है
खुशी के गीत गाती है
बीते पल भूल जाती है
यूंही जिंदगी गुजर जाती है |
पर कर्मठ कभी भाग्य पर
निर्भर नहीं रहता
होता है चिड़िया से भिन्न
अपना रास्ता स्वयं खोजता
समस्याओं से जूझना सीखता
उनसे बाहर निकलने के लिए
प्रयत्नों में कमी नहीं रखता
समस्याओं से भरी है जिंदगी
यह भी कभी नहीं भूलता |
आशा