08 सितंबर, 2010

व्यथा बेरोजगार की

जब अध्यनरत था ,
सफलता के शिखर पर ,
सदा रहता था ,
हर बार प्रथम आता था ,
कभी भाग्य आड़े,
नहीं आता था ,
बहुत लगन से यत्न किये ,
लिखित परीक्षा में सफल रहा ,
पर ना जाने क्यूँ ,
असफलता ही हाथ लगी ,
नौकरी ना मिल पाई ,
बार बार की असफलता ,
हीन भावना भरने लगी ,
लोगों के सामने आने से ,
घबराहट सी होने लगी ,
जब भी कोई मिलता था ,
पहला प्रश्न यही होता था ,
आजकल क्या कर रहे हो ,
मैं निरुत्तर हो जाता था ,
कभी विद्रोह भी करता था ,
तरह तरह की बातों से ,
मन में अकुलाहट होती थी ,
वेदना घर कर जाती थी ,
मन तार तार कर जाती ही ,
पानी बिना मछली की तरह ,
छटपटाहट होने लगती है ,
बेचैनी और बढ़ जाती है ,
यदि योग्यता नहीं होती ,
शायद दुःख भी नहीं होता ,
सब कुछ होते हुए भी ,
असफलता से गठबंधन ,
कुंठित करता जाता है ,
विष मन में घुलता जाता है ,
सब की हिकारत भरी दृष्टि,
मुझे अकेला कर जाती है ,
मैं क्या करूं, क्या है मेरे हाथ में ?
धन भी पास नहीं है ,
और ना कोई अनुभव है ,
जो भाग्य अजमाऊं व्यापार में ,
सोचता हूं सोचता ही रहता हूं ,
ना जाने क्या लिखा है प्रारब्ध में |
आशा

07 सितंबर, 2010

क्या उचित क्या अनुचित

संबंध बनाए ऐसे लोगों से ,
कभी दूर रहते थे जिनसे ,
की चर्चा जिन बातों की ,
क्या विश्वास किया था पहले ,
धर्म ,जाति , भाषा ,प्रान्त ,
जाने क्या सोच लिया तुमने ,
पहले भी बहुत सोचते थे ,
पर अन्याय ना सह पाते थे ,
करते थे विरोध ,
हर असंगत बात का ,
उससे नफरत भी करते थे ,
तुम्हारी यही बातें और विचार ,
लाये मुझे निकट तुम्हारे ,
पर अचानक यह बदलाव ,
मेरी समझ से बहुत परे है ,
है किसका दबाव तुम पर ,
समाज का या परिवार का ,
कहने को बाध्य नहीं करूंगी ,
पर इतना अवश्य कहूंगी ,
अंतरात्मा की अनसुनी कर ,
दूसरों के अनुसार चल कर ,
प्राप्त तुम्हें कुछ ना होगा ,
कभी इस पर दृष्टिपात करना ,
गहराई से विचार करना ,
समाज उसी पर शासन करता है ,
कमजोर जिसे समझता है ,
साहस और शक्ति है जिसमें ,
उससे किनारा कर लेता है ,
साहस है भर पूर तुममें ,
शक्ति की भी कमी नहीं है ,
पर कुछ ऐसा है अवश्य ,
जो तुम्हें बाध्य करता है,
वही सब करने के लिए ,
अनुमति जिसकी नहीं देता ,
मन या मस्तिष्क तुम्हारा ,
सामाजिक होना बुरा नहीं है ,
परम्पराएं निभाना भी हैं ,
पर सारे नियमऔर परम्पराएं ,
न्यायोचित नहीं होतीं ,
और सही भी नहीं होतीं ,
जब विकृत रूप ले लेती हैं ,
उचित यही होता है ,
मुक्ति पा लेना उनसे ,
अन्यथा संकुचित विचार ,
मन मैं घर करते जाते हैं ,
चाहे जब परिलक्षित होते हैं ,
कूप मण्डूक बना देते हैं |

आशा

06 सितंबर, 2010

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं ,
मुझसे हैं नाराज ,
जाने कहाँ गुम हो गए हैं ,
उनके बिना रिक्तता ,
अनजाने ही मुझमें,
घर कर गई है ,
जब चाहे अपना,
आभास करा जाती है ,
उसे भरना बहुत मुश्किल है ,
जो कुछ भी हुआ था ,
उसकी याद दिला जाती है ,
अनेकों यत्न किये मैने ,
फिर भी उसे,
बिसरा नहीं पाती ,
बेचैनी और बढ़ती जाती ,
पहले जब वीणा बजती थी ,
तार मन के झंकृत होते थे ,
मन जीवंत हो जाता था ,
दुनिया से दूर बहुत ,
अपने में खो जाता था ,
इस बार तार जो टूटा है ,
उसे जोड़ना बहुत कठिन है ,
यदि जुड भी गया ,
तो वह मधुरता ,
शायद ही आ पायेगी ,
फिर भी हूं प्रयत्न रत ,
शायद इसे जोड़ पाऊं ,
स्वर वीणा के खोज पाऊं ,
उन में ही रम जाऊं |
आशा

05 सितंबर, 2010

है जिंदगी क्या

अंधेरी रात में ,
जब ना हो कोई साथ में ,
कटती है रात तारे गिन गिन ,
तारे का टूटना और विलुप्त हो जाना ,
किसी अपने की याद दिलाता ,
कामना पूर्ती की आस जगाता ,
आशा निराशा में डूबती उतराती ,
एकाकी जीवन नैया ,
उलझनों से बाहर निकल नहीं पाती ,
गहरे भंवर में फंसती जाती ,
लुकाछिपी करते जुगनू ,
कभी चमकते कभी छिप जाते ,
चमक दमक जिंदगी की,
नजदीक आ दिखला जाते ,
है जिंदगी क्या समझा जाते ,
असली रूप दिखा जाते ,
एक तो अंधेरी रात ,
और दूर से आती आवाज ,
डरावनी सी लगती है ,
बहुत अनजानी लगती है ,
है जिंदगी एक भूल भुलैया ,
सभी इस में खो जाते हैं ,
राह कभी तो दिखती है ,
फिर जाने कंहाँ खो जाती है ,
जब राह नहीं खोज पाते ,
अधिक भटकते जाते हैं ,
और निराश हो जाते हैं ,
यह कैसी संरचना सृष्टि की ,
कोई नहीं समझ पाया ,
ना ही कभी समझ पाएगा ,
मैं हूं एक भटका राही ,
खोजते खोजते राह ,
किसी दिन विलुप्त हो जाना है ,
भूल भुलैया मैं फस कर ,
वहीं कहीं रुक जाना है ,
पर मेरा प्रयत्न विफल ना हो ,
कोई निशान छोड़ जाना है ,
कुछ तो करके जाना है |
आशा

04 सितंबर, 2010

प्रेरणा एक शिक्षक से

आसपास के अनाचार से ,
खुद को बचाकर रखा ,
पंक में खिले कमल की तरह ,
कीचड से स्वम् को बचाया तुमने ,
सागर में सीपी बहुत थी ,
अनगिनत मोती छिपे थे जिनमे ,
उनमे से कुछ को खोजा ,
बड़े यत्न से तराशा तुमने,
आज जब आभा उनकी दिखती है ,
प्रगति दिग दिगंत में फैलती है ,
लगता है जाने कितने,
प्यार से तराशा गया है ,
उनकी प्रज्ञा को जगाया गया है ,
काश सभी तुम जैसे होते ,
कच्ची माटी जैसे बच्चों को ,
इसी प्रकीर सुसंस्कृत करते ,
अच्छे संस्कार देते ,
स्वच्छ और स्वस्थ मनोबल देते ,
अपने बहुमूल्य समय में से ,
कुछ तो समय निकाल लेते ,
फूल से कोमल बच्चों को ,
विकसित करते सक्षम करते ,
जो कर्तव्य तुमने निभाया है ,
सन्देश है उन सब को ,
तुम से कुछ सीख पाएं ,
नई पौध विकसित कर पाएं ,
खिलाएं नन्हीं कलियों को ,
कई वैज्ञानिक जन्म लेंगे ,
अपनी प्रतिभा से सब को ,
गौरान्वित करेंगे ,
जीवन में भी सफल रहेंगे ,
अन्य विधाओं में भी ,
अपनी योग्यता सिद्ध करेंगे ,
जब रत्नों की मंजूषा खुलेगी ,
कई अनमोल रत्न निकलेंगे |
आशा

03 सितंबर, 2010

आभास क्षमता का

है खंजन नयन ,चंचल चपल ,
मद मस्त चाल हिरणी सी ,
कभी लगती ठंडी बयार सी ,
फिर भी है विरोधाभास ,
तू है उदास विरहणी सी ,
वेदना के स्त्रोत क्यूँ,
साथ लिए रहती है ,
है जीवन की भरपूर आस ,
ना हो उदास ,
उससे दूर क्यूँ रहती है ,
तू नहीं जानती ,
है कितनी अमूल्य तू ,
है तुझ में ऐसी तपिश ,
जो चाहे कर सकती है ,
कभी ठंडी हिम पिंड सी ,
दावानल की तरह ,
कभी उग्र भी हो सकती है ,
अपनी क्षमता को पहचान ,
ना रह इससे अनजान ,
दृढता से उठे कदम ,
ऊँचाई तक पहुंचाएंगे ,
तेरी पहचान बनापाएंगे ,
मत भूल अपनी क्षमता को ,
ना ही सीमित कर क्षेत्र को ,
जब लोग तुझे जानेंगे ,
तेरी पहचान पुष्ट होगी ,
दुनिया तब बैरी ना होगी ,
जिस भी क्षेत्र में कदम रखेगी ,
सफलता के उत्तंग शिखर पर ,
तू सहज ही चढ़ पाएगी |
आशा

02 सितंबर, 2010

कविता में परिवर्तन क्यूँ

सदा से ही प्रशंसक रहा ,
तुम्हारे कृतित्व का ,
इसको और बल मिला ,
जब मनोयोग से तुम्हें पढ़ा ,
इतना कुछ तुमने लिखा है ,
थाह पाना मुश्किल है ,
इच्छा तुमसे मिलने की ,
अधिक बलवती होती गई ,
जब भी अवसर मिला ,
तुमसे मिला ,
कुछ अधिक ही संपर्क रहा ,
मित्रता प्रगाढ़ होती गई ,
मैने जो कुछ भी लिखा ,
त्रुटियों को क्षम्य मान ,
मुझे सराहा,
प्रोत्साहित किया ,
कई बार साथ बैठा करते थे ,
भिन्न विषयों पर चर्चा करते हें ,
उनमे गहरे पैठ जाते थे ,
आत्मसात करते जाते थे ,
कई खंड काव्य रचे तुमने ,
वे अमर तुम्हें कर गए ,
दिलाया स्थान ,
इतिहास और साहित्य में ,
कई लोगों की प्रेरणा बन गए,
पहले कविता बहुरंगी थी ,
कई विधाएं छूती थी ,
फिर न जाने क्या हुआ ,
वह विद्रोह से भरती गई ,
यह कैसा परिवर्तन आया ,
क्रांतिकारी विचारक बन गए ,
जब भी कारण जानना चाहा ,
हर बार हंस कर टाल गए ,
मैं आज भी तुम्हारे जाने के बाद ,
रचनाएँ समेटे बैठा हूं ,
कारण विद्रोह का खोज रहा हूं ,
लेखन में यह बदलाव,
अचानक आया कैसे ,
कलम ने स्वयं को ,
विद्रोही बनाया कैसे |
आशा