एक दिन एक व्रत लिया
दिन भर खड़े रहने का
सारे दिन मौन रहने का
सोचा दिन भर चुप रहूंगी
एक भी शब्द ना कहूंगी
पर जैसे ही सुबह हुई
आवाजों का क्रम शुरू हो गया
और मौन टूट गया
उस पर भी था उल्हाना
जबाब क्यूं नहीं देतीं
कब से पुकार रहे हें
तुम ध्यान नहीं देतीं
इतना शुब्ध मन हुआ
बैठने का मन हुआ
और प्रण टूट गया
फिर सोचा पूजा करू
निर्जला व्रत रखूं
आधा दिन तो बीत गया
फिर सहनशक्ति ने कूच किया
और उपवास टूट गया
जब भी व्रत रखती हूं
कई व्यवधान आते हें
कारण चाहे जो भी हो
हो जाता है मन विचलित
सोच रही हूं अब मैं
कोई उपवास नहीं रखूं
आस्थाओं पर टिक न पाती
सारी महानत व्यर्थ जाती
ऐसे व्रत से लाभ क्या
जो पूर्ण नहीं हो पाता
मन असंतुलित कर जाता
सत् कर्म से अच्छा
शायद ही कोई व्रत होता हो
मन चाहता उसी पर अडिग रहूं
आस्था उसी पर रखूं |
आशा