26 जून, 2011

यदि चाहत हो कुछ करने की


यदि चाहत हो कुछ करने की

हर बार सफल रहने की

फिर भी करना मनमानी

उचित नहीं लगता

कुछ भी हाथ नहीं आएगा

समय पंख लगा उड़ जाएगा |

जिसने भी की मनमानी

अपनी जिद को सर्वोपरी समझा

असफलता की सीड़ी पर

चढता गया फिर मुड़ न सका

उम्र भी निकल गई

सिवाय पछतावे के
कुछ भी हाथ नहीं आया |

आशा

24 जून, 2011

कैसे तुझे भुलाऊँ


तू यहाँ रहे या वहाँ रहे

जहां चाहे वहाँ रहे

कभी रूठी रहे

या मन जाए

पर बहारों का पर्याय है तू

मीठी यादों का बहाव है तू |

चेहरे की मुस्कराहत

अठखेलियाँ करती अदाएं

अखियों की कोर सजाता काजल

लगा माथे पर प्यारा सा डिठोना

किसी की नजर ना लग जाए |

तेरी नन्हीं बाहों की पकड़

कसती जाती थी

जब भी बादल गरजते थे

दामिनी दमकती थी

वर्षा की पहली फुहार

तुझे भिगोना चाहती था |

आगे पीछे सारे दिन

मेरा पल्ला पकड़

इधर उधर तेरा घूमना

गोदी में आने की जिद करना

राह में हाथ फैला कर रुक जाना

बाहों में आते ही मुस्कराना

जाने कितनी सारी बातें हैं

दिन रात मन में रहती हैं

कैसे उन्हें भुलाऊँ

तू क्या जाने

तू क्या है मेरे लिए |

आशा

22 जून, 2011

विश्वास मन का



मंदिर गए मस्जित गए

और गिरजाघर गए

गुरुद्वारे में मत्था टेका

चादर चढाई मजार पर |

कई मन्नतें मानीं

कुछ इच्छाएं पूरी हुईं

कई अधूरी रह गईं

तब अंतर मन ने कहा

है यह विश्वास मन का

ना कि अंध विश्वास किसी धर्म का

होता वही है

जो है विधान विधि का |

क्या अच्छा और क्या बुरा

,हर व्यक्ति जानता है

फिर भी भटकाव रहता है

सब के मन में |

जान कर भी जानना नहीं चाहता

अनजान बना रहता है

,मन की शान्ति खोजता है

जिसका मन होता स्वच्छ और निर्मल

वह उसके बहुत करीब होता है |

जब आख़िरी दिन होगा

हर बात का हिसाब होगा

सब कर्मों का लेखा जोखा

यहीं दिखाई दे जाएगा |

आशा

21 जून, 2011

ऐसी ही है जिंदगी


कभी लगती पुष्पों की सेज सी

कभी डगर काँटों की

कभी पेंग बढाते झूले सी

ऐसी ही है जिंदगी |

देखते ही देखते

यूं ही गुजर जाती है

कैसे करें भरोसा इस पर

कभी भी साथ छोड़ जाती है |

जो भी इसे समझ पाया

सामंजस्य स्थापित कर पाया

वही अपने हिसाब से

अपने तरीके से जी पाया |

जिसने इसे नहीं समझा

इसका मोल नहीं आंका

इसे भोग नहीं पाया

वह भी तो इससे जुदा हुआ |

किसी ने बेवफा कहा इसे

कुछ ने मुक्ति मार्ग का नाम दिया

जाने कितनों ने इसे उपकार कहा

प्रभु की अनमोल देन समझा |

वह भी ऐसी

जो जन्म के साथ मिली हो

फिर वह बेवफा कैसे हो

जिसमें वफा ही भरी हो |

संगी साथी सब छूट जाते हैं

कभी स्मृतियों में

खोते जाते है

कभी विस्मृत भी हो जाते हैं |

है जिंदगी ऐसा अनुभव

जो दौनों ही पाते हैं

कुछ याद रखते हैं

कई भूल जाते हैं |

आशा

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18 जून, 2011

क्यूँ दोष दूं किसी को


सुबह से शाम तक

फिरता रहता हूँ

सड़क पर

यहाँ वहाँ |

फटी कमीज पहने

कुछ खोजता रहता हूँ

शायद वह मिल जाए

मेरे दिल की दवा बन जाए |

मेरी गरीबी

मेरी बेचारगी

कोई समझ नहीं सकता

जिसे मैं भोग रहा हूँ |

एक दिन मैंने देखा

वह खुले बदन

ठण्ड से काँप रहा था

ना जाने क्यूँ

मुझे दया आई

अपनी गरीबी याद आई

कमीज उतारी अपनी

उसे ही पहना दी |

उसकी आँखों की चमक देख

संतुष्टि का भाव देख

मन में अपार शान्ति आई |

बस अब मेरे साथी हैं

यह फटा कुर्ता और पायजामा |

तेल बरसों से

बालों ने न देखा

आयना भी ना देखा

कभी खाया कभी भूखा रहा

फिर भी हाथ ना फैलाया |

क्या करू हूँ गरीब

समाज से ठुकराया गया

यह जिंदगी है ही ऐसी

कुछ भी न कर पाया |

गरीबी के दंशों से

बच भी नहीं पाया |

क्यूँ दोष दूं किसी को

हूँ पर कटे पक्षी सा

फिर भी रहता हूँ

अपनी मस्ती में |

जहां किसी का दखल नहीं है

कोई पूंछने वाला नहीं है

मुझे किसी की

ना ही किसी को

मेरी जरूरत है |

आशा

17 जून, 2011

अब वह कॉलेज कहाँ


कॉलेज की वे यादें

आज भी भूल नहीं पाती

मन में ऐसी बसी हैं

अक्सर याद आती हैं |

प्राध्यापक थे विद्वान

अपने विषयों के मर्मग्य

उच्च स्तरीय अध्यापन निपुण

और अनुकरणीय |

विद्यार्थी कम होते थे

स्वानुशासित रहते थे

कई गतिविधियां

खेल कूद और सांस्कृतिक भी

सौहार्द्र पूर्ण होती थीं |

उनमें भाग लेने की ललक

अजीब उत्साह भारती थी

जब जीत सुनिश्चित होती थी

या पुरूस्कार मिलता था

तालियों से स्वागत

गौरान्वित करता था |

थी एक मसखरों कई टोली

था काम गेट पर खड़े रहना

आते जाते लोगों को

बिना बात छेड़ते रहना

फिर भी बंधे थे मर्यादा से |

रिक्त काल खण्डों में

बागीचा था उन की बैठक

चुटकुले और शेर शायरी

या हास परिहास में

व्यस्त रहते थे|

सब के नाम रखे गए थे

जब भी कोई चर्चा होती थी

होता था प्रयोग उनका

हँसने का सामान जुट जाता था |

हंसी मजाक और चुहलबाजी

तक सब थे सीमित

लड़के और लडकियां आपस में

यदा कडा ही मिलते थे |

दत्त चित्त हो पढते थे

प्रोफेसर की नजर बचा

कक्षा में कभी लिख कर

बातें भी करते थे |

जब भी अवसर मिलता था

शरारतों का पिटारा खुलता था

हँसते थे हंसाते थे

पर दुखी किसी को ना करते थे |

अब वैसा समय कहाँ

ना ही वैसे अध्यापक हैं

और नहीं विद्यार्थी पहले से

आज तो कॉलेज लगते हैं

राजनीति के अखाड़े से |

आशा

15 जून, 2011

प्रक्रिया परिवर्तन की



बोया बीज पौधा उगा

जाने कब पेड़ बन गया

कली से फूल

और फिर फल बन गया

यह परिवर्तन कब हुआ

जान नहीं पाया |

रंग बिरंगी तितली

उड़ती फिरती डाल डाल

मकरंद चुरा कर फूलों का

ले जाती जाने कहाँ

यह रंग रूप कहाँ से पाया

जान नहीं पाया |

नन्हां बच्चा

बढते बढते जाने कब

वयस्क हो गया

और फिर बूढा हुआ

परिवर्तन तो देखा

पर कैसे हुआ कब हुआ

अनुभव ही नहीं हुआ |

कब परिवर्तन होते हैं

दिन में या रात में

या सतत होते रहते हैं

प्रकृति के आँचल में

राज न जान पाया |

है यह करिश्मा प्रकृति का

या कोई निर्देश नियति का

इससे भी अनजान रहा

पर उत्सुक हूँ अवश्य

जानना चाहता हूँ

कब होती है प्रक्रिया

तिल तिल बढ़ने की |

आशा