18 नवंबर, 2011

एक मोहरा


प्रेमी न थे वे तो तुम्हारे
भरम में फंसते गए
नादाँ थे जो जान न पाए
गर्त में धंसते गए |
मार्ग न पाया उचित जब तक
भटकाव सहते गए
साथी न पाया अर्श तक जब
फलसफे बनते गए |
ना बेवफाई की तुम्हारी
आहट तक उन्हें मिली
प्यार में धोखा खाते गए
रुसवाई उन्हें मिली |
यूँ तो न थे वे प्रिय तुम्हें भी
मानते यह क्यूँ नहीं
वे थे तुम्हारा एक मोहरा
स्वीकारते क्यूँ नहीं |

आशा


15 नवंबर, 2011

स्वर्ग वहीं नजर आया


गहन जंगल ,गहरी खाइयां
लहराते बल खाते रास्ते
था अटूट साम्राज्य जहां
प्राकृतिक वन संपदा का |
थे कहीं वृक्ष गगन चुम्बी
करते बातें आसमान से
चाय के बागान दीखते
हरे मखमली गलीचे से |
हरी भरी वादी के आगे
थी श्रंखला हिम गिरी की
था दृश्य इतना विहंगम
वहीं रमण करता मन |
ऊंचे नीचे मार्गों पर
सरल न था आगे बढ़ना
सर्द हवा के झोंके भी
हिला जाते समूचा ही |
फिर भी कदम ठिठक जाते
आगे बढ़ाना नहीं चाहते
प्रकृति के अनमोल खजाने को
ह्रदयंगम करते जाते |
जब अपने रथ पर हो सवार
निकला सूर्य भ्रमण पर
था तेज उसमें इतना
हुआ लाल सारा अम्बर |
प्रथम किरण की स्वर्णिम आभा
समूची सिमटी बाहों में
उससे ही श्रृंगार किया
हिम गिरी के उत्तंग शिखर ने |
उस दर्प का क्या कहना
जो उस पर छाता गया
दमकने लगा वह कंचन सा
स्वर्ग वहीं नजर आया |
आशा





13 नवंबर, 2011

वे दिन

वे दिन वे ही रातें
सोती जगती हंसती आँखें
तन्हाई की बरसातें
जीवन की करती बातें |
सुबह की गुनगुनी धूप ने
पैर पसारे चौबारे में
हर श्रृंगार के पेड़ तले
बैठी धवल पुष्प चादर पर
लगती एक परी सी |
थे अरुण अधर अरुणिम कपोल
मधुर
मदिर मुस्कान लिए
स्वप्नों में खोई हार पिरोती
करती प्रतीक्षा उसकी |
कभी होती तकरारें
सिलसिले रूठने मनाने के
कई यत्न प्यार जताने के
जिसे समीप पाते ही
खिल उठाती कली मन की |
वे दिन लौट नहीं पाते
बस यादें ही है अब शेष
कभी जब उभर आती है
वे दिन याद दिलाती हैं |
आशा




04 नवंबर, 2011

सृजन के लिए


जो देखा सुना या अनदेखा किया
कुछ बस गया कुछ खो गया
दिल के किसी कौने में
कई परतों में दब गया |
दी दस्तक जब किसी ने
स्वप्नलोक में खो गया
अनेकों उड़ानें भरी
कुछ नई ऊर्जा मिली |
शायद था यह भ्रम
या था अंतरनिहित भाव
पर था अनुभव अनूठा
गुल गुलशन महका गया |
महावारी पैरों तले मखमली हरियाली
और वही मंथर गति कदमों की
घुलते से मधुर स्वर कानों में
कुछ बिम्बों का अहसास हुआ |
साकार कल्पना करने को
कुछ शब्द चुने कागज़ खोजे
ज्वार भावों का न थम पाया
नव गीत का श्रृंगार किया |
शब्दों का लिवास मिलते ही
कुछ अधिक ही निखार आया
जब भी उसे गुनगुनाया
कलम ने हाथ आगे बढ़ाया |
नई कृति नया सृजन नए भाव
प्रेरित होते बिम्बों से
जिनके साकार होते ही
सजने लगते नए सपने |

आशा

03 नवंबर, 2011

कसौटी






जिस साधना की नव विधा के, स्वर सिखाये आपने।
वो गीत गाये गुनगुनाये, जो सुनाये आपने।।
वो थे मदिर इतने कि कानों - में, मधुरता चढ़ गयी।
है गीत की यह रीत, गाने - की विकलता, बढ़ गयी।१।

वह गीत गाती, गुनगुनाती, वादियों में घूमती।
मौसम मधुर का पान करती, मस्तियों में झूमती।।
ढेरों किये तब जतन उसने, आपसे दूरी रही।
मिलना न था सो मिल न पाई, क्वचिद मज़बूरी रही।२।

बीते दिनों की याद उसको, जब सताने लग गयी।
तब याद जो मुखड़े रहे, वह, गुनगुनाने लग गयी।।
वह आत्म विस्मृत भटकनों में, भटकती जीने लगी।
फिर भूल कर सुध-बुध, मगन-मन, भक्ति-रस पीने लगी।३।

तब तोड़ कर बंधन जगत से, प्रभु भजन में खो गयी।
अनुरोध मन का मान कर, वह, कृष्ण प्यारी हो गयी।।
हर श्वास में प्रभु थे बसे, वश, लेश, तन-मन पर न था।
हर पल कसौटी तुल्य था, पर, पर्व से कमतर न था।४।
आशा

02 नवंबर, 2011

मीत बावरा

है मीत ही बावरा उसका ,निमिष में घबरा गया
पाया न सामने जब उसको ,भावना में बह गया |

थी बेचैन
निगाहें उसकी ,ना ही धरा पैरों तले
जाने कब तक यूं ही भटका , न पाया जब तक उसे |

भागा हुआ वह गया अपनी ,प्रियतमा की खोज में
पा दूर से ही झलक उसकी ,ठंडक आई सोच में |

आया नियंत्रण साँसों पर , आहट पाकर उसकी
मुस्कानों में खो गया , थी वह जन्नत उसकी |
आशा