24 जून, 2012

पाषाण ह्रदय

कई बार सुने किस्से
 सास बहू के बिगडते
बनते तालमेल के 
विश्लेषण का अवसर न मिला
जब बहुत करीब से देखा 
अंदर झांकने की कोशिश की 
बात बड़ी स्पष्ट लगी 
यह कटुता या गलत ब्यवहार 
इस रिश्ते की देन नहीं 
है  यह पूर्णरूपेण व्यक्तिगत
जो जैसा सहता है देखता है 
वैसा ही व्यवहार करता है 
मन की कठोरता निर्ममता 
करती असंतुलित इसे 
सास यह भूल जाती है 
बेटी उसकी भी 
किसी की तो बहू बनेगी 
जो  हाथ बेटी पर न उठे 
वे कैसे बहू पर उठते है 
क्या यह दूषित सोच नहीं 
है अंतर बहू और बेटी में 
क्यूं फर्क फिर व्यवहार में 
वह  भी तो किसी की बेटी है 
प्यार पाने का हक रखती है ||
आशा




21 जून, 2012

है कितना अकिंचन

एक नन्हां सा तिनका
समूह से बिछड़ा हुआ
राह में भटक गया
 बारम्बार सोच रहा
 जाने कहाँ जाएगा
होगा क्या हश्र उसका
 और कहाँ ठौर उसका
 यदि पास दरिया के गया  
बहा ले जाएगी उसे
उर्मियाँ अनेक होंगी 
उनके प्रहार से हर बार
क्या खुद को बचा पाएगा
यदि फलक पर
वजूद अपना खोजेगा


चक्रवात में फंसते ही
घूमता ही रह जाएगा
आगे बढ़ना तो दूर रहा
वहीँ फंसा रह जाएगा




   लगती उसे धरा सुरक्षित
पर अरे यह क्या हुआ 
 मनुज के पग तले आते ही
 जीवन उसका तमाम हुआ 
है कितना अकिंचन
कितना असहाय
सोचने के लिए अब 
 कुछ भी बाकी नहीं  रहा |
आशा













                                                                                                                                                                                              

19 जून, 2012

जकड़ा चारों ने ऐसा




बीत गया बचपन
ना कोई चिंता ना कोई झंझट
समय का पंछी कब उड़ा
 याद नहीं आता
 बढ़ी उम्र दर्पण देखा
देखे  परिवर्तन
मोह जागृत हुआ
अभीलाषा ने सर उठाया
कुछ कर गुजरने की चाह ने
चैन सारा हर लिया
मन चाही कुर्सी जब पाई
मद ने दी दस्तक दरवाजे पर
नशा उसका सर चढ़ बोला
अहंकार का द्वार खुला
चुपके से उसने कदम बढ़ाया
मन में अपना डेरा जमाया
जीवन के तृतीय चरण में
माया आना ना भूली
मन मस्तिष्क पर अधिकार किया
उम्र बढ़ी मुक्ति चाही
सारी दुनियादारी से
पर माया ने हाथ मिलाया
मोह, मद, मत्सर से
सब ने मिल कर ऐसा जकड़ा
छूट न पाया उनसे
अंतिम समय तक |
आशा


17 जून, 2012

वहीँ आशियाना बनाया


थी राह बाधित कहीं न कहीं
कैसे आगे बढ़ पाती

जीवन कहीं खो गया
उसे कहाँ खोज पाती
जब भी कदम बढाने चाहे
कई बार रुके बढ़ न सके
वर्जनाओं के भार से
खुद को मुक्त ना कर सके 
जितनी बार किसी ने टोका
सही दिशा न मिल पाई
भटकाव की अति हो गयी
अंतस ने भी साथ छोड़ा
विश्वास डगमगाने लगा
आँखें धुंधलाने लगीं
 कुछ भी नजर नहीं आया
थकी हारी एक दिन
रुकी ठहरी आत्मस्थ हुई
विचार मग्न निहार रही
दूर दिखी छोटी सी गली
देख कर पक्षियों की उड़ान
और ललक आगे जाने की
इससे संबल मिला
जीवन का उत्साह बढ़ा
तभी हो कर मगन
वहीँ आशियाना बनाया
चिर प्रतीक्षा थी जिसकी
उसी को अपनाया  |

आशा 



15 जून, 2012

चाँद ने चांदनी लुटाई


 चाँद ने चांदनी लुटाई
शरद पूनम की रात में
सुहावनी मनभावनी
फैली शीतलता धरनी पर
कवि हृदय विछोह उसका
सह नहीं पाते
दूर उससे रह नहीं पाते
हैं वे हृदयहीन
जो इसे अनुभव नहीं करते
इसमें उठते ज्वार को
महसूस नहीं करते
कई बार इसकी छुअन
इसका आकर्षण
ले जाती  बीते दिनों में
वे पल जीवंत हो उठते  
आज भी यादों में
है याद मुझे वह रात
 एक बार गुजारी थी
शरद पूर्णिमा पर ताज में
अनोखा सौंदर्य लिए वह
जगमगा रहा था रात्रि  में
आयतें  जो उकेरी गईं
चमक उनकी  हुई दुगनी
उस हसीन  चांदनी में
आज भी वह दृश्य
नजर आता है
बंद पलकों  के होते ही  
बीते पल में ले जाता है
उस  शरद पूर्णिमा की
याद दिलाता है |
आशा

12 जून, 2012

मार मंहगाई की

हुआ मुख विवर्ण 
सारी रंगत गुम हो गयी 
कारण किसे बताए 
मंहगाई असीम हो गयी 
सारा राशन हुआ समाप्त 
मुंह  चिढाया डिब्बों ने 
पैसों  का डिब्बा भी खाली 
उधारी भी कितनी करती
वह कैसे घर चलाए 
बदहाली से छूट पाए
मंहगाई का यह आलम 
जाने कहाँ ले जाएगा 
और न जाने कितने
रंग दिखाएगा
दामों की सीमा पार हुई 
कुछ  भी  सस्ता नहीं
पेट्रोल की  कीमत बढ़ी 
कीमतें और बढानें लगीं 
वह देख रही  यह दारुण मंजर
भरी  भरी आँखों से
है  यह ऐसी समस्या 
सुरसा  सा मुंह है इसका
थमने का नाम नहीं लेती 
और विकृत होती जाती 
इससे कैसे जूझ पाएगी 
मन को कितना समझाएगी
किसी  की छोटी सी फरमाइश भी
दिल को छलनी कर जाएगी |
इसकी  मार है इतनी गहरी
कैसे सहन कर पाएगी |


आशा