जाने कब बचपन बीता
यादें भर शेष रह गईं
थी न कोई चिंता
ना ही जिम्मेदारी
कोई
खेलना खाना और
सो जाना
चुपके से नजर बचा कर
गली के बच्चों में खेलना
पकडे जाने पर घर बुलाया जाना
कभी प्यार से कभी डपट कर
जाने से वहाँ रोका
जाना
तरसी निगाहों से
देखना
उन खेलते बच्चों को
मिट्टी के घर बनाते
सजाते सवारते
कभी तोड़ कर पुनः
बनाते
किसी से कुट्टी किसी से दोस्ती
अधिक समय तक वह भी न रहती
लड़ते झगड़ते दौड़ते
भागते
बैर मन में कोई न
पालते
ना फिक्र खाने की
ना ही चिंता घर की
ना सोच छोटे बड़े का
ना भेद भाव ऊँच नीच
का
सब साथ ही खेलते
साथ साथ रहते
वह बेचारा अकेला
उन बेजान खिलौनों से
ऊपर से अनुशासन झेले
यह करो यह न करो
वह सोच नहीं पाता
मन मसोस कर रह जाता
ललचाई निगाहों से
ताकता
उन गली के बच्चों
को
अकेलापन उसे सालता
था उसका कैसा बचपन |
आशा