21 अगस्त, 2016
18 अगस्त, 2016
खुशबू
भीनी भीनी सी सुगंध
जैसे ही यहाँ आई
तुम्हारे आने की खबर
यहाँ तक ले आई
हम जान लेते हैं
तुम्हें पहचान लेते है
अनोखी सुगंध है
अनोखा एहसास है
हजारों में भी
सब से अलग
तुम लगती हो
यही खुशबू बन गई है
परिचय तुम्हारी
उसके बिना तुम
अधूरी सी लगती हो
वह भीनी खुशबू
तुममें समा गई है
तुम्हारे जाने के बाद भी
कुछ समय महक
बनी रहती है
यही महक
प्रफुल्लित कर जाती है
तुम्हारी उपस्थिति
दर्ज करा जाती है |
आशा
16 अगस्त, 2016
14 अगस्त, 2016
पन्द्रह अगस्त
मिली स्वतंत्रता पंद्रह अगस्त को
स्वतंत्र देश के हैं नागरिक
आजादी कितनी मुश्किल से मिली
अब कुछ भी याद नहीं
कुर्वानी देश के लिए जिसने दी
अब किताबों तक सीमित रह गई
राष्ट्रीय त्यौहार मनाने की
रस्म अदाई बच रही
अब तो इतना ही याद है
आजादी हमारा है अधिकार
इस पर कोई न डाका डाले
हैं लड़ने मरने को तैयार
अपने अधिकार सुरक्षा को
जब आजादी मिली थी
कुछ दाइत्व भी सोंपे गए थे
वे सब कहाँ खो गए
एक भी याद न रख पाए
अधिकार सुरक्षा में ऐसे खोए
कर्तव्य पालन भूल गए
राष्ट्र ध्वज के तलेआज भी
कोई प्रतिज्ञा लेते हैं
पर कैसे पूरी की जाएं
यह तक नहीं सोचते
यही मानसिकता देश को
आगे बढ़ने नहीं देती
अर्ध विकसित तब भी था
आज भी वहीं है |
आशा
13 अगस्त, 2016
भोर कभी न आए
हरी भरी वादियों में
जाने का मन है
वहीं समय बिताने का मन है
स्वप्न तक नहीं अछूते
उनकी कल्पना में
जाने कितने स्वप्न सजाए
कल को जीने के लिए
यह तक याद नहीं रहा
स्वप्न तो सजे हैं
पर रात के अँधेरे में
तेरा अक्स मुझे रिझाए
एकांत पलों के साए में
केनवास पर रंग व् कूची
कई अक्स बनाए मिटाए
वादियों की तलाश में
वह मन को रिझाए
गीत प्यार के गुनगुनाए
तभी दिल चाहता है
भोर कभी न आए
स्वप्न में ही वह उसे पा जाए
आने वाला कल उसके लिए
खुशियों की सौगात लाए|
आशा
11 अगस्त, 2016
अभाव हरियाली का
खँडहर में कब तक रुकता
आखिर आगे तो जाना ही है
बिना छाया के हुआ बेहाल
बहुत दूर ठिकाना है
थका हारा क्लांत पथिक
पगडंडी पर चलते चलते
सोचने को हुआ बाध्य
पहले भी वह जाता था
पर वृक्ष सड़क किनारे थे
उनकी छाया में दूरी का
तनिक भान न होता था
मानव ने ही वृक्ष काटे
धरती को बंजर बनाया
कुछ ही पेड़ रह गए हैं
वे भी छाया देते नहीं
खुद ही धूप में झुलसते
लालची मानव को कोसते
जिसने अपने हित के लिए
पर्यावरण से की छेड़छाड़
अब कोई उपाय न सूझता
फिर से कैसे हरियाली आए
पथिकों का संताप मिटाए |
आशा
08 अगस्त, 2016
कवि बेचारा
लिखने के लिए
अब रहा क्या शेष
सभी कब्जा जमाए बैठे हैं
रहा ना कुछ बाक़ी है
हम तो यूँ ही दखल देते हैं
किसी के प्रिय नहीं हैं
फिर भी जमें रहते हैं
तभी तो कोई नहीं पढ़ता
हमने क्या लिखा है
ना रहा किसी का वरद हस्त
ना ही कोई मार्ग दर्शक
हम किसी खेमें में नहीं
तभी अकेले हो गए हैं
हम किसी खेमें में नहीं
तभी अकेले हो गए हैं
उड़ने की चाह ने
दी है ऐसी पटकी
भूल से भी नहीं देखेंगे
ना ही कभी चाहेंगे
तमगों की झलक भी |
आशा
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