चौराहे पर चौमुख दीया
दिग्दिगंत रौशन करता
अपार प्रसन्नता होती
जब यायावरों को राह दिखाता
वायु के झोंके करते जब प्रहार
झकझोर कर रख देते उसे
बाती काँप जाती
अपने को अक्षम पाती
कभी तो घटती कभी बढ़ जाती
वह दीपक से शिकायत करती
अपने नीचे झाँको
है कितना अंधेरा तुम्हारे तले
है तुम्हारा कार्य
भटकों को राह दिखाना
परोपकार करते रहना
पर क्या मिला बदले में तुम्हें ?
दीपक ने सोचा क्षण भर के लिए
कुछ मिला हो या न मिला हो
जीता हूँ आत्म संतुष्टि के लिए
किसी पर अहसान नहीं करता
जब तुम हो मेरे साथ
स्नेह से भरपूर !
आशा सक्सेना