16 दिसंबर, 2019

मन ही तो है














 मन ही तो है कागज़ की नाव सा 
बहाव के साथ बहता 
तेज बहाव के साथ वही राह पकड़ता
डगमग डगमग करता |
या तराजू के काँटों सा
पल में  तोला पल में  माशा
है अजब  तमाशा इस  का
कहने को तो है  पूरा  नियंत्रित
पर कोई भी वादा नहीं किसी से
 चाहे जब  परिवर्तित होता  
कभी प्यार से सराबोर होता
कभी वितृष्ण  का स्त्राव होता 
कहीं स्थाईत्व नजर न आता
बारबार कदम डगमगाते
 मन का निर्देश पाकर
कभी हिलने का नाम न लेते
 एक ही जगह थम से  जाते
कितने भी यत्न किये 
पर समझ न पाए
है क्या इसकी मंशा ?
है स्वतंत्र उड़ान का पक्षधर
कोई बाँध न पाया इसको
कहने को तो बहुत किया संयत
फिर भी कमीं रही पूरी न हुई
तराजू का काँटा कभी इधर
तो कभी उधर हुआ
हार कर एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे
है आखिर मन ही इस काया में
 जिसे कोई बाँध न पाया
इसकी थाह  न ले पाया |
आशा

12 दिसंबर, 2019

आनंद अलाव का

न्यूज़ फ़ीड


चहरे पर मुस्कान रहती
ना कोई चिंता ना भय की लकीरें
सर्दी चाहे जितनी हो
सहन  शक्ति अपार होती
प्रातः काल जला अलाव
चारो ओर गोला बना
सर्दी से लोहा लेते
मुंह पर भाव विजय के
आते जाते बने रहते
यही तो है बचपन
किसी चुनौती से हार न मानी
अलाव की गर्मीं से सर्दी हारी
यह न  केवल बच्चों का है शगल
बड़े भी शामिल होते इसमें
बच्चे दिन में लकड़ी बीनते
लम्बी हो या छोटी
मोटी हो या पतली
पर हों  सूखी
फटे चिंदे भी साथ रखते
थैली में इकट्ठा करते
माचिस  रखना नहीं भूलते
 जब अलाव जल जाता
सब ताप सेकने आ जाते  
बड़े तो रजाई में दुबके रहते
वहीं से नसीहत देते
सावधानी बरतना
कहीं जल न जाना |
                                                                   आशा

11 दिसंबर, 2019

ठिठुरन




                                                                कोहरे की घनी चादर
                                                                     
यह ठिठुरन और   
ठंडी हवा की चुभन
हम महसूस करते हैं
सब नहीं 
शिशिर ऋतु का अहसास 
सुबह होते हुए भी
रात के अँधेरे का अहसास 
हमें होता है
सब को नहीं
आगे कदम बढ़ते जाते हैं
सड़क किनारे अलाव जलाये
कुछ बच्चे बैठे 
कदम ठिठक जाते हैं
आँखों के इशारे
उन्हें मौन निमंत्रण देते 
  शिशिर ऋतु के मौसम से 
हो कर अनजान
तुम क्यूँ बैठे हो यहाँ
ऐसा क्या खाते हो
जो इसे सहन कर पाते हो
उत्तर बहुत स्पष्ट था
रूखी रोटी और नमक मिर्च
प्रगतिशील देश के
आने वाले कर्णधार
ये नौनिहाल
क्या कल तक जी पायेंगे
दूसरा सबेरा देख पायेंगे
मन में यह विचार उठा
पर यह मेरा भ्रम था
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ 
जैसा मैंने सोचा था
अगले दिन भी
कुछ देर से ही सही
कदम उस ओर ही बढ़े
सब को सुबह चहकते पाया
लगा मौसम से सामंजस्य
उन्होंने कर लिया है
धीरे से एक उत्तर भी उछाला
कैसा मौसम कैसी ठिठुरन
अभी काम पर जाना है
सुन कर यह उत्तर
खुद को अपाहिज सा पाया
असहज सा पाया
इतने सारे गर्म कपड़ों से
तन दाब ढाँक बाहर निकले
फिर भी ठण्ड से
स्वयं को ठिठुरते पाया |
आशा

04 दिसंबर, 2019

हालात






हालात ---


  समय के साथ 
  बदलते  रहते   हैं हालात
इंसान वही रहता है
 बस  हालात बदल जाते हैं |
बचपन में जब  था  
 आश्रित माता पिता पर  
हर कार्य के लिए निर्भर
 हुआ करता था  उन पर |
वय  के साथ बढ़ी
 जब से आत्मनिर्भरता
बदला सोच का दायरा
 हर बात में परिवर्तन आया |
कभी जो अत्यंत  प्रिय हुआ करते थे
 हुई दूरियां उनसे
अधिक प्रिय गैर लगने लगे 
अब अपने हुए पराए |
बहुत सोचा विचारा 
 पर कारण तक पहुँच न पाया
 समझ ना पाया ऐसा हुआ क्या ?
क्या  किशोरावस्था हावी हुई ?
स्वभाव में उग्रता आई
 अपनों की सलाह रास न आई
यौवन आते ही बढ़ा आकर्षण 
बड़े प्रलोभनों ने भरमाया |
माया मोह में फंसता गया
 मन स्थिर  ना रह पाया
जीवन के अंतिम पड़ाव पर
 मन मस्तिष्क  में बैराग्य आया|
 हर कार्य ईश्वर पर छोड़ा
 मन के  अन्दर झांका
 अपने आप को 
 आत्मनिरीक्षण करता पाया |
   थामाँ आस्था का आँचल 
 कसौटी  पर जब  परखा खुदको
समय के साथ वह खुद नहीं बदलता 
हालात बदल देते उसको |
                              आशा

02 दिसंबर, 2019

सत्य अनुरागी

मिलते हज़ारों में 
दो चार अनुयायी सत्य के 
सत्यप्रेमी यदा कदा ही मिल पाते 
वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते !
सदाचरण में होते लिप्त 
सद्गुणियों से शिक्षा ले 
उनका ही अनुसरण करते 
होते प्रशंसा के पात्र ! 
लेकिन असत्य प्रेमियों की भी 
इस जगत में कमी नहीं 
अवगुणों की माला पहने 
शीश तक न झुकाते 
अधिक उछल कर चले 
वैसे ही उनके मित्र मिलते 
लाज नहीं आती उन्हें 
किसी भी कुकृत्य में !
भीड़ अनुयाइयों की 
चतुरंगी सेना सी बढ़ती 
कब कहाँ वार करेगी 
जानती नहीं 
उस राह पर क्या होगा 
उसका अंजाम 
इतना भी पहचानती नहीं !
दुविधा में मन है विचलित 
सोचता है किधर जाए 
दे सत्य का साथ या 
असत्य की सेना से जुड़ जाए 
जीवन सुख से बीते 
या दुखों की दूकान लगे 
ज़िंदगी तो कट ही जाती है 
किसी एक राह पर बढ़ती जाती है  
परिणाम जो भी हो 
वर्तमान की सरिता के बहाव में 
कैसी भी समस्या हो 
उनसे निपट लेती है ! 
आशा सक्सेना 

01 दिसंबर, 2019

फलसफा प्रजातंत्र का

बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती 
पालनार्थ आदेश पारित करती 
पर अर्थ का अनर्थ ही होता 
मंहगाई सर चढ़ बोलती 
नीति जनता तक जब पहुँचती 
अधिभार लिए होती 
हर बार भाव बढ़ जाते 
या वस्तु अनुपलब्ध होती 
पर यह जद्दोजहद केवल 
आम आदमी तक ही सीमित होती 
नीति निर्धारकों को 
छू तक नहीं पाती 
धनी और धनी हो जाते 
निर्धन ठगे से रह जाते 
बीच वाले मज़े लेते ! 
न तो दुःख ही बाँटते 
न दर्द की दवा ही देते 
ये नीति नियम किसलिए और 
किसके लिए बनते हैं 
आज तक समझ न आया ! 
प्रजातंत्र का फलसफा 
कोई समझ न पाया ! 
शायद इसीलिये किसीने कहा 
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे 
वर्तमान मन को न भाया !
आशा