हूँ कितनी अकेली
अब तक जान न पाई
मेरे मन में क्या है
खुद पहचान नहीं पाई |
मेरा झुकाव किस ओर है
यही ख्याल हिलता डुलता रहा
स्थाईत्व नहीं आया मेरे सोच में
अपने को स्थिर नहीं कर पाई |
मैं क्या हूँ? क्या चाहती हूँ ?
ना मैं समझी न किसी ने समझाया
तभी मनमानी करना ही पसंद मुझे
मन की ही करती हूँ जिद्दी हो गई हूँ |
अब लग रहा है कहीं असामाजिक
तो नहीं हो गई हूँ
अपने में कोई बदलाव न कर
खुश नहीं हूँ फिर भी |
क्या कोई तरकीब नहीं जिससे
समय के साथ चल पाने से
मन को सुकून मिल पाएगा
खुशी आएगी खुद को सामाजिक बना लेने से |
आशा